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वर्धमान चम्पूः
धनपतिमान्यो धनिकस्तस्य हयधोवतिगृहे ( तलघरे) शृंखलानिगडित - हस्तपादामुकलितवदनारविन्दा चन्दना सती हृदयविदारकानेक कष्टं सहमाना वन्दिनीव महता दुःखेन स्वदिवसान् यापयति स्म । विधुरस्तयातयाsश्रावि यतीर्थंकरो विहरन् कोशाम्बीमायातः श्रीमहावीरः । एतच्छ्रवणमात्रेणैव पुलकितगात्रायाः कृतान्तकान्तस्थान्तायाः कान्ताचरणसंमग्नायास्तस्याः स्वाति तृणाय मन्यमानाया मनसीदृशी सुभावोद्रेकवती भावना समुद्भूता यद्यहं परमपुण्यसभ्य दर्शनीय श्रीमहावीराय संयमाराधनतत्पराय दद्यामाहारमिति । किन्तु सांप्रतमहमस्मि भूमिगृहाभ्यन्तर बसिनी शृङ्खला निगडितपादकश कथमिव मे वराकिन्या मनोरथो मनोराज्यादिविकल्पवत् सफलता सभेत । इत्थं दुर्दम्यसंकल्पपरायणा सा हताशा न
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वहां धनिकों में भी विशिष्ट एक धनिकजन रहते थे। उनके मकान के नीचं एक तलघर था । उसमें श्रृंखला से जिसके हाथ-पैर बन्धे हुए थे और मुख जिसका उदासीनता के भाव से मुकलित हो रहा था ऐसी सती चन्दना बन्दी की तरह अनेक हृदयविदारक कष्टों को सहन करती हुई बन्द थी | वह वहां श्रनेक प्रकार के दुःखों को भोगती हुई अपने दुदिनों को व्यतीत कर रही थी । विपत्ति को मारी हुई उसने जब ऐसा सुना कि तीर्थंकर महावीर कौशाम्बीनगरी में पधारे हैं तो सुनते ही सैद्धान्तिक मान्यता से सुहाबने मनवाली एवं निर्दोष आचरण से संपन्न उसका शरीर श्रानंदोत्कर्ष से फूला नहीं समाया अपने आपमें । वह अपनी व्यथा भूल गयीं । उसे तृण के जैसा नगण्य गिनती हुई उसने मन में ऐसी भावना भायी कि मैं पुण्यलभ्यदर्शनवाले इन संयम की आराधना में तत्पर बने हुए महावीर के लिए बाहार दूँ परन्तु में इस समय तलघर में बन्द हूँ, शृङ्खला से मेरे हाथ-पैर बन्धे हुए हैं । यह मुझ अभागिनी का मनोरथ मनोराज्यादि विकल्प की तरह कैसे सफलता को प्राप्त हो सकता है । इस प्रकार की दुर्दम्य भावना में परायण यह हताश नहीं हुई । अपने