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मानवभ्यूः
चलासन एव तिष्ठति स्म । नाजायत बलवतोऽपि प्रकम्पकारिणः शीतस्य लेशतोऽप्यनुभवोऽस्मै । ग्रीष्मता शिखरितुङ्ग शिखर मध्याभ्यासौ करोति स्म ध्यानम् । न भवति स्म शक्त उपरिष्टात्सूर्यातपोऽधस्ताच्चायोगोलक - वत्यन्तं संतप्तं पाषाणखण्डम् । उष्णः परितः प्रवमानस्तरस्वी समीरइच । निरम्बरं दिगम्बरं स्वाध्यासादिचालयितुमेनम् । न शक्नोति स्म वर्षतावपि चैतन्नग्न शरीरोपरि पतन् परितो भयाऽऽहत प्रसारोऽपि स्वात्मचिन्तने संमग्नमेनं ध्यानाद्दृष्टं विधातुम् यद्यप्यशरण्येऽरण्ये मदोन्मत्तानां गण्डस्थलात् स्त्रवद्दानोदकानां वनगजानां गर्जनाः, केशरिणां धर्यध्वंसिनः क्ष्वेडोध्वनयः वन्तशुकानां पुत्काराश्च भवन्ति तथाप्यस्य प्रमोरेतेषां मानमात्मचिन्तने निमग्नत्वात् किश्चिदपि नोऽजायत ।
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हो । शरीर में कंपकंपी श्री जावे ऐसी अधिक शीतलहर युक्त पवन चलने पर भी इन्हें जरा सी भी उण्ड का अनुभव नहीं होता था । जब ग्रीष्म ऋतु ग्राती उस समय पर्वत की ऊंची से ऊंची चोटी पर बैठकर ये ध्यान करते थे । ऊपर तपते हुए सूर्य के प्रखर प्रताप में और नीचे लोहे के गोले के समान अत्यन्त तप्त हुए पाषाणखण्ड में ऐसी शक्ति नहीं थी जो इन निरम्बर- वस्त्रविहीन दिगम्बर मुनिराज वर्धमान को आत्मध्यान से तनिक भी विचलित कर सके तथा वर्षा ऋतु में भी ऐसी सामर्थ्य नहीं थी जो उस काल में इनके नग्न शरीर पर चारों ओर से गिरती हुई मूसलाधार - वेगवती - वृष्टि स्वात्मचिन्तवन में निरत हुए इन्हें ध्यान से उचाट मनवाली बना सकती । यद्यपि उस प्रशरण्य अरण्य – बन—में मदोन्मत्त जंगली हाथियों की चिंघाड़ें होती रहती थीं, धेर्य को छुड़ा देनेवाली शेरों की दहाई भी होती रहती थीं, सर्पराज भी फुंकारते रहते थे तब इन प्रभु को प्रात्म- 1 म- चिन्तवन में निमग्न होने के कारण इनका समका कुछ भी भान नहीं होता था ।