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वर्धमानचम्पू:
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"महता परिश्रमेण विना महत्कार्य न सम्पन्नं संजायते ।" इत्युक्त्यनुसारेण महतः कार्यस्य सिध्यर्थं तावन्महानेवायासः करणीयः कल्प्यते । प्रतः श्रीमता भगवता महाबोरेणानाधिकालतः संसक्तस्यैकलोलीभावेनात्मनि कर्मबन्धस्य, यशादनन्तशक्तिशालिन इमे जीयाः संसारकारागारे बन्दिन इव पिहिताः सन्तो प्रवं नानाविधं स्ससनं सहन्ते क्षयार्थ कठोरातिकठोर तपश्चरणं समारग्धम । यदाऽयमात्मसाधनायां निमग्मो भवति स्म तदा बहन दिवसान पाच देकेनैवासनेन विनिश्चलोऽनल इव तिष्ठति स्मोसिनो वा भवति स्म । यवा कदाचित साधकमासमपि निरात रमारमध्यानं कुर्वन्नास्ते स्म । तस्मिन् समये यधपि तस्याहार ग्रहणाभारतावस्थत एवाजायत नैतस्चित्रं, परं वित्रमेतदेव यवाहवातावरणस्यापि प्रभावस्तवयस्थायां तस्यानुभव विषयो न जायते स्म । अतएवासौ शीतती शिलोच्चशिखरे तटिनीतटे निरावरणप्रवेशेवात्मध्याननिरतोरवद
"महान् कार्यों की सिद्धि कठो रातिकठोर परिश्रमसाध्य ही होती है, उसके बिना नहीं होती है" ?स नीति के अनुसार महान कार्य को सुसम्पन्न करने के लिए महान् ही परिश्रम करणीय होता है, इसीलिए भगवान् महावीर ने अनादिकाल से क्षीर नीर की तरह एकलोली भाव से आत्मा में संसक्त हए वमों से धन वो जिसकी वजह से अनात शक्तिशाली ये जीवात्माएँ बन्दीजन की तरह इस संसाररूपी कारागार में बन्द हई नाना प्रकार के कष्टों को सहन करती आ रही हैं नष्ट करने के लिए कठोरातिकठोर दुर्धर तपश्च रण करना प्रारम्भ किया । जिस समय ये प्रात्म-साधना में निमग्न होते. उस समय अनेक दिनों तक एक ही ग्रासन से पर्वत की तरह अचल-स्थिर रहते । जब कभी ये एक माह तक भी निरन्तर अात्मध्यान में तल्लीन रहते उस समय यद्यपि इनके आहार ग्रहण करने का प्रभाव स्वतः ही रहता था-सो इसमें कोई अचरज जैसी बात नहीं है परन्तु आश्चर्य जैसी बात तो यह थी कि बाह्य वातावरण का भी प्रभाव उस अवस्था में इनके अनुभव में नहीं आता था । यही कारण है कि ये शीतकाल में पर्वत की चोटी पर, नदी के तट पर तथा प्रावरणविहीन स्थान पर प्रात्मध्यान में ऐसे तल्लीन हो जाते थे जैसे कोई अचल-पर्वत