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वर्धमानचम्पू:
ध्यानेन सायत्तपसा श्रुतेन वुर्भावत्ति ह्यशुभोपयोगम् । निरुध्य साधुश्च रणद्धि पश्चादुष्कर्मणामागमनं प्रयत्नात् ।। १५ ।। कथं च जीवस्य हितं भवेत्ते,
विवानिशं भावनयाऽनयाळपाः । भवन्त्यतो धर्नामहोपदेशे,
तदेव तत्त्वं प्रवदन्ति नान्यत् ॥ १६ ॥ अलौकिको वृत्तिरतोऽहामोषां वाचंयमानां भवतीति शास्त्रे। प्रोक्त मुनीनामभिवंद्यपावभवभेदं कुरुतेऽथ भक्तः ॥ १७ ॥ तदेव तीर्थ निपतन्ति पत्र,
तेषां गुरूणां गुरवोऽत्रयस्ते । त्रैलोक्यबंधा रजसां जनानां,
संहारकाः सर्वहितंकराणाम् ॥ १८ ।।
ध्यान से, तपस्या से और स्वाध्याय से ये अशुभ उपयोग एवं दुर्भाववृत्ति को दूर करते एवं दुष्कर्मों के प्रास्त्रव को रोकते रहते हैं ।। १५ ।।
जीवों का कल्याण कैसे हो रात-दिन ये इसी विचारधारा से सने हए रहते हैं और इसी विषय को वे अपने धार्मिक उपदेश में भी प्रकट करते रहते हैं ।। १६ ।।
इन मुनिराजों की प्रत्येक प्रवृत्ति अलौकिक ही होती है। इनके सहारे अन्य और भी भव्यजन अपने पापों को–अशुभ कर्मों को नष्ट करते रहते
वही स्थान' तीर्थस्वरूप हो जाता है जहां पर सर्वहितंकर इन गुरुदेवों के त्रिलोकवंद्य चरणकमल पड़ते हैं ।। १८ ॥