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वर्धमानचम्पू:
इत्थं संचिन्त्य फर्मारिवहनार्थं मुमुक्षुभिः ।
तपसा सततं कुर्याद्वर्धमानेन वासिसम् ।। ४४ ।। ताख्यशास्त्राविधिलोडनेन्स स्कोमानमगाय क्षेत्र : अम्बाविदासान्तपदोपगूढो विद्यागुरुमें अयताद् वयालुः ॥ ४५ ॥
नन्त पौत्र पितामहेन रचिते काट्येऽध षष्ठो गतः, एषोऽत्र स्तबकस्तनोतु नितरां विद्वज्जनानां मुदम् । यावच्चन्द्रदिवाकरौ वितनुतः स्वीयां गति चाम्बरे,
स्थेयात्तावदियं मया विरचिता चम्पूर्जनरादूता ॥ ४६॥ श्री सटोले सुतेनेयं सल्लोमाद्भवेन च रचिता मूलचन्द्रेण मालथौननिवासिना।
षष्ठः स्तबकः समाप्त:
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इस प्रकार तपस्या की बलिष्ठता का विचार करके मोक्षाभिलाषी जीवों को बढ़ती हुई तपस्या से प्रात्मा को वासित करते रहना चाहिये ।। ४४ ॥
मेरे विद्यागुरु पूज्यपाद अम्बादास शास्त्री (बनारस निबासी) थे। उन्होंने तर्कशास्त्ररूपी समुद्र का मंचन करके सरस्वतीरूपी रत्न प्राप्त किया था । ऐसे वे मेरे विद्यादाता गुरुदेव सदा जयवंत रहें ।। ४५ ।।
नन्कू नामका मेरा पोता है। मैं उसके पिता का पिता है। मैंने इस चम्पूकाव्य की रचना की है। इसका यह छठवां स्तबक समाप्त हो चुका है । जब तक नभमण्डल में चन्द्र और सूर्य चमकते रहें तब तक यह स्थिर रहे और विद्वज्जनों को प्रानन्द प्रदान करता रहे ।। ४६ ॥
मेरा नाम मूलचन्द्र है । मैं मालीन नाम का निवासी हूं-अर्थात् वह मेरी जन्मभूमि है । पिताश्री का नाम श्री सटोलेलाल और माता का नाम सल्लोबाई है । इस ग्रन्थ की रचना मैंने की है।
छठा स्तबक समाप्त