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सप्तमः स्तबक:
कंवल्यप्राप्तिः
यथा, समिमिन्धनं प्रदह्यते ऽग्निना स्वयम्,
तथैव कर्म संचितं प्रदाले तपस्यया । मुमुक्षुभिः प्रकर्षतः शुभाशयेन सर्वया,
यथा यथा प्रसेप्यो प्रदह्यतेऽजितो विधिः ॥ १ ॥ यथा मलविहीनस्य पदार्थस्य विशुद्धता । यथा विधिविहीनस्य जोषस्यापि विशुद्धता ॥२॥
सातवां स्तबक
जिस प्रकार ईंधन का ढेर अग्नि के द्वारा जला दिया जाता है उसी प्रकार तपस्या के द्वारा आत्मा में संचित हुए कर्म जला दिये जाते हैं
आत्मा के साथ संयोग सम्बन्ध होने से पृथक् कर दिये जाते हैं । अतः मुमुक्षुजन का कर्तव्य है कि वह विशिष्ट पुरुषार्थ के साथ सद्भावों से सर्वदा तपस्या की आराधना करे । क्योंकि जैसे-जैसे तपस्या प्रकर्षवती होती जावेगी तैसे-तैसे संचित कर्म विघटित होते जायेंगे ।।१।।
जिस प्रकार मल-विहीन पदार्थ में विशुद्धता–चमक-निर्मलता प्रा जाती है, उसी प्रकार कर्मविहीन आत्मा में भी विशुद्धता-निर्मलताविशदता-या जाती है ।। २ ।।