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मधमानचम्पूः
स्वस्य त्रैकालिकी शूविक्तिः संव तबाप्तितः । भन्ममृत्वाविक्लेशेभ्यो निर्मुक्तो मुनिनायकः ॥३॥
चतुः कर्मक्षयेणेय जायते केवसाभिधम् । सुजान, सर्वलोकोऽयमणुवचत्र भासते ॥४॥
जगति विद्यमानेषु पदार्थेषु यस्मिन् कस्मिरिचदप्यर्थे पदबहमूल्यत्वं समावरणीयत्वं पाविर्भवति न तक्नोसेन जायमानं विलोक्यते तदर्थ प्रभूतप्रयत्नाः परिश्रमाश्च करणीया भवन्ति । यतस्तत्प्रबलाया स कष्टसाध्याविना मायेव तवभावे तस्यानुपपद्यमानस्यात् । यथा गहनोस्खननानन्तरं भ्रमितो मत्तिकापाषाणाद्याश्लिष्टं रत्नपाषाणशकलं मलिनमेव तावन्निगच्छति ।
आत्मा में जो अकालिक विशुद्धता का वास है वही मुक्ति है । जीव को जब इसको प्राप्ति हो जाती है तब वह मुक्तिकान्ता का नायक बन जाता है ।। ३ ।।
शानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय एवं अन्तराय इन चार कर्मों के सर्वथा क्षय हो जाने पर केवल ज्ञानरूप विशुद्धता की प्राप्ति जीव को हो जाती है । इस ज्ञान में लोकालोक अणु के जैसा झलकता रहता है ।।४।।
जगत् में जितने भी चराचर पदार्थ विद्यमान है उनमें से जिस पदार्थ में जो बहुमूल्यता एवं समादरणीयता आविर्भूत होती है वह उसमें अनायासरूप से आयी हुई नहीं देखी जाती है । इसके लिए तो बहुत अधिक प्रयत्न एवं परिश्रम करना होता है क्योंकि वह उनमें प्रबल प्रायास - कठोर परिश्रम और कष्ट से साध्य होती है अर्थात् ऐसा किये बिना वह उनमें नहीं पा सकती है । जैसे कोई रत्नपाषाण का अर्थी हो तो वह सर्वप्रथम भूमि को खोदता है । खोदते-खोदते उसे भूमि में से जो रत्नपाषाण मिलता है वह मिट्टी से मलिन हुअा ही मिलता है परन्तु जब