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वर्धमानवम्पूः
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परन्तु सद् यथा टंकोल्कोणं धनधातितं सत् जायते शाणोल्लिखितं तवैव प्रकाशमानं रत्नं तस्माषाविर्भय सि । एवमेवाग्निपुटपाकाभ्यां मुहर्मतस्तापितं स्वर्ण सुवर्ण सच्चकास्ति तदेव च तत्र समावरणीयत्वं बहुमूल्योपेतत्वं च जायते । संसारोऽपि च तस्य बहुसमावरं विदधाति, सम्पूर्णमूल्येन बहूत्कंठया तत् क्रोणाति ।
प्रात्मास्त्यनंत ज्ञानादि वैभवजस्तत्समो नास्ति कोऽप्यभूल्यः पदार्थों जगत्त्रये । ररनधदात्मनो विभयोऽपि प्रनादिकालीनसंसक्तकर्ममलेनाहितरवादनाविर्भूतोवर्तते । तस्मिन् कर्ममलेऽन्तहिते तद्वभवं निखिलरूपेण शुद्धं विषाय प्रकटोकतुं महतः पुरुषास्यानेकविधापतितकष्ट सहनक्षमतायाश्चानिवार्यावश्यकताऽस्ति । तवैवारमात्मा परमविशुद्धः सन विश्वविविश्वबंधः परमात्मपवप्रतिष्ठितो भवति ।
उसकी सफाई करने के लिए उसे शाण पर घिसता है और छैनी से उसे काटता-छांटता है और हथोड़े की चोट उस पर देता है तो चमकता हा रत्न उसमें से प्रकट होता है। इसी प्रकार खान में से निकला हा स्वर्णपाषाण अग्निपुटपाक के द्वारा बार-बार तपाया जाता है तो वह निर्मल होकर चमकने लगता है । ऐसी स्थिति में आने पर हो जैसे उनमें बहमुल्यता और समादरणीयता आती है तथा संसार भी उनका बहुत मादर करता है एवं अधिक से अधिक कीमत देकर उन्हें खरीदता है।
यह प्रात्मा भी इसी तरह अनन्तज्ञानादिरूप वैभव का पुंजरूप है । इसके जैसा अमूल्य और कोई पदार्थ तीन लोक में नहीं है । रत्न के वैभव के समान इसका वैभव भी अनादिकालीन कर्ममल से अन्तहित हो रहा है। इस कारण वह प्रकट नहीं हो पा रहा है । अत: उस कर्ममल के भीतर छिपा हुआ प्रात्मा का वैभव सम्पूर्ण रूप से शुद्ध करने के निमित्त बहुत बड़े पुरुषार्थ की और इस कार्य में आये हुए कष्टों को सहन करने की क्षमता की अनिवार्य प्रावश्यकता है । तभी यह आत्मा परम विशुद्ध होता है एवं विश्ववेत्ता-सर्वज्ञ और विश्ववंद्य होकर परमात्मपद पर विराजमान होता है।