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बर्वमान चम्पूः , तीर्थकर महायोरेणापि स्वात्मनः परमविशुद्धिकृते कठोरातिकठोरतपसि चर्या कृता । तपस्येफलोलीभावेन संसक्तस्य तस्य पूर्वसंचितकमराशि प्रत्येकक्षणं निर्जीर्णो भवन्नासीत् । कर्मास्रवस्तबन्धश्चाल्पीयस्त्वं धत्ते स्म । प्रासीत्कर्ममलोऽपत्रीयमानोऽभवत् । एतेनात्मनः प्रच्छन्नं तेजस्तदोदीयमानं संभववासीत् । अतः कर्मभारेण स्वल्पशक्तिवता दुनिवारेणात्मनि प्रतिसमयं लघुत्वमागतम् । मुक्तिश्च प्रतिक्षणं तस्यातिनिकटाबस्थापन्नतां वधाति स्म ।
चारित्रधर्मेण विहीनधोधो कर्माणि बग्धं नहि शक्तिशाली । यथा, तथा बोधविहीन एषोऽपि तानि हन्तुं न ध हन्त ! शक्तः ॥ ५ ॥
तीर्थकर श्री महावीर ने अपने आपको विशुद्धि के लिए कठोरातिकठोर तपस्या करना प्रारम्भ कर दिया। वे उस तपश्चरण में दूध में पानी की तरह एकलोलीभाव से विलीन हो गये। उनकी संचित कर्म राशि प्रतिसमय-क्षणक्षण में निर्जीर्ण होने लगी। नवीन कर्मों का आस्रव एवं बंध बिलकुल न्यून अवस्था में होने लगा । अतः आत्मा में छिपा तेज प्रकट-उदित अवस्था बाला बन गया। इस कारण कर्मभार कम होने से प्रात्मा में प्रतिसमय हल्कापन आने लगा और मुक्तिस्त्री भी प्नतिक्षण उनके निकट होने लगी।
जो प्रात्मा चारित्र धर्म से बिहीन होती है वह कर्मों को दग्ध करने मैं शक्तिशाली नहीं बन पाती है। इसी तरह जो आत्मा सम्यग्ज्ञान से रहित होती है वह भी कमों को नष्ट करने में असमर्थ रहती है ।। ५ ।।