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वर्धमानचम्पूः
यथाहि कश्चित् प्लवनेक बोधविशिष्ट शिष्टोऽपि नरो न याति । क्रियां विना कूपनिमग्नकायस्तत्पारमत्रापि तथैव बोध्यम् ।। ६ ।।
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ज्ञानक्रियाभ्यां खलु मोक्ष एष महोपदेशो जिनधर्ममर्म । प्रमाणभूतो वितथो न बाधा-विवर्जितो भव्यजनैः प्रसेव्यः ॥ ७
कर्मारण्यं वहति नितरामेव चारित्रवह्नि ।
स्तस्मादन्यो भवति न परस्तत्प्रदुग्धुं समर्थः । गुप्त्याद्यैः प्रज्वलति तरसा वायुनेवाग्निवत्सः ।
कर्मारोधे भवति च पुनस्तत्क्षये वा परिष्ठः ॥ ८ ॥
जैसे कोई तैरना जाननेवाला व्यक्ति पानी में – जलाशय में - कुए में गिर जाने पर तैरने की क्रियारूप हाथ-पैर चलाना आदि किया न करे तो वह वहां से पार नहीं हो सकता इसी प्रकार ज्ञान यदि क्रिया से विहीन है तो वह ज्ञानी भी कर्मों को दग्ध करने में – प्रात्मा से उन्हें पृथक् करने में समर्थ नहीं हो सकता है ।। ६ ।।
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इसलिए ज्ञान और तदनुकूल क्रियारूप श्राचरण के योग से ही जीव श्रात्मशुद्धिरूप मोक्ष प्राप्त करता है ऐसा जिनेन्द्रदेव का उपदेश है । यह सर्वथा प्रमाणभूत है क्योंकि इसमें प्रत्यक्षादि किसी भी प्रमाण से बाधा नहीं आती है | अतः त्रितय न होने के कारण भव्यजनों को इसका पालन अच्छी तरह से करना चाहिये || ७ ||
चारित्र की महिमा इस कारण से है कि वह श्रग्नि की तरह कर्मरूपी वन को जड़मूल से नष्ट कर देता है । इसके सिवाय उसे और कोई भस्मसात् करने में समर्थ नहीं है । चारित्ररूपी अग्नि को धधकती बना देनेवाले साधन गुप्ति प्रादि हैं। वायु के वेग से जिस प्रकार श्रग्नि धधक मे लगती है उसी प्रकार इन गुप्ति आदि साधनों से चारित्ररूपी अग्नि वृद्धिगत होती जाती है । यही नवीन कर्मों के शास्रव - आगमन - को रोककर संचित कर्मों को जला देती है ॥ ८ ॥