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वर्धमामचम्पू:
पंकजा ये प्रसुप्तास्तेऽधुना बुद्धा इवानतिम् । प्रकम्पिताः समीरेण कुर्वन्तीह स्ववन्धवे ॥१०॥
पराकीयं चकोरी पानाथा रात्रिमसेवत । तज्जन्ममहसा संषा प्रातः स्वेशं समाप द्राक् ॥११॥
महिषीयं हरेराशा वारुणी प्रति शरसती । स्वसौभाग्यमनौपम्यं वक्ति रव्युदयाठलात् ॥ १२ ॥
वारणी भजतः कस्य पतनं नाभवद्भुवि । शिक्षामिमां विधातुं हि रविरुदयमागतः ॥ १३ ॥
जो कमल तालाब में सूर्यास्त के बाद मुकलित हो गये थे बे अब सूर्योदय होने पर खिल गये हैं और मन्द मन्द मलयानिल से वे प्रकम्पित हो रहे हैं इससे ऐसा आभास होता है कि मानो वे अपने बन्धुरूपी सूर्य को नमस्कार ही कर रहे हैं ।। १० ।।
बिना नाथ की हुई इस चकोरी ने रात्रि की सेवा करने से जो पुण्य कमाया उसी का उसे यह फल मिला कि सूर्योदय होते ही उसे अपने प्राणनाथ का प्यार मिल गया ।। ११॥
यह पूर्व दिशा जो कि इन्द्र की महिषी है—रवि के उदय के बहाने से---मिस से-मानो वारुणी दिशा से--पश्चिम दिशा से अपना प्रसाधारण सौभाग्य ही प्रकट कर रही है ।। १२ ।।
__ "जिन्होंने वारुणी-शराब या पश्चिम दिशा की सेवा की उनमें से इस संसार में ऐसा कौन व्यक्ति बचा है जिसका पतन नहीं हुमा हो” मानो जगज्जन को ऐसी ही शिक्षा देने के लिए जब सूर्य उदित हुमा ।। १३ ।।