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वर्धमानमभ्यूः
दिवानाथेन मे पत्नी निशा नीता दिवं हहा ! सद्विनरहं कथं प्राणान् बधे चास्तंगतः शशी ॥ १४ ॥
ऋच्छपुष्पावकीर्णे च नमस्तपे महत्तरे । या शितम्योरभूत् के लिम्लनास्ताराश्च मर्दनात् ।।१५।।
जातमधुनेषियोगतः ।
कैरवाणां कुलं विनिद्रितं न तद्भाति गृहीतं किन्तु मूच्छंया ॥१६॥
सरोजानां प्रमोदोऽभूत् स्वबन्धोरवलोकनात् । रीतिः सांसारिकीषा कस्य न स्वजनः प्रियः ॥ १७ ॥
तब चन्द्रमण्डल मानो इस ख्याल से ही अस्तंगत हो गया कि जब सूर्य ने मेरी पत्नी रात्रि को ही विनष्ट कर दिया है तो अब उसके बिना मेरा जोना भी असम्भव है ।। १४ ।
प्रकाशरूपी विस्तृत पलंग पर पर जिस पर तारिकावली रूपी फूलों की सेज बिछी हुई थी, चन्द्रमण्डल और रात्रि दोनों ने कामक्रीड़ा की अतः उनके संमर्दन से ही मानो तारिकावलीरूपी पुष्प भी म्लान हो गये ।।१५।।
उधर रात्रिविकासी कैरवों का समूह भी अपने स्वामी चन्द्रबिम्ब के वियोग से मुकलित हो गया, वह देखनेवालों को ऐसा प्रतीत होता था मानो उसे मूर्छा ने ही घर दवाया हो ।। १६ ।।
इधर कमलों को अपने बन्धु सूर्य के दर्शन होते ही महान् हर्ष हुमा अर्थात् वे खिल गये । संसार की रीति भी ऐसी ही है कि अपने इष्टं बन्धु के प्रवलोकन से प्रानन्द का सागर हिलोरे लेने लग जाता है ।। १७ ।।
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