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वर्धमानचम्पूः
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अक्षणोः पदम समुद्घाट्य प्रभातमाकलब्य च ।
समुत्सृज्य प्रियाङ्कच पल्य' विजर्जनाः ॥१८॥ सहस्रकरमालिनि भगवति भास्करे उदयाचलशिखरमधिरूढे सतितावन्महीपालकमन्दिरान्तः,
प्रायोधिकाः पेठरुपेत्य गीतिम् । मनोजकंठध्वनिभिगंभोरेः,
प्रबोधनार्थ सुमतेमहिष्याः ॥१६॥
विभावरी देवि ! गताऽऽगता था,
प्रभातवेला, त्वमिहोस्थितास्याः । निद्रां च तन्द्रांक शम्या,
प्रभातकृत्यं पर चारनेत्रे ॥२०॥
मानव समाज ने जब अांखों की पलकों को खोलकर देखा कि प्रातः काल हो गया है तो उन्होंने उसी समय अपनी प्रिया के अङ्क को और पलंग को एक साथ छोड़ दिया ।। १८ ।।
___ इतने में सहस्र किरणालि परिमण्डित सूर्य-मण्डल उदयाचल पर्वत पर उदित हो गया।
सूर्य के उदित होते ही स्तुतिपाठकजन राजमन्दिर के प्राङ्गण में पाकर उपस्थित हो गये और मनोमुग्ध करनेवाली कंठध्वनि से मनोरंजक गीतों के द्वारा सुमतिशालिनी महिषी त्रिशला को जगाने लगे ।। १६ ।।
हे देवि ! रात्रि समाप्त हो चुकी है, प्रभात का समय हो गया है । अब पाप उठिये और निद्रा एवं तन्द्रा का परिहार कर शय्या का परित्याग कर दीजिये । हे चारुने ! यह समय प्राभातिक क्रियानों के करने का है अतः उन्हें कीजिये ।। २० ।।