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वर्धमानचम्मः द्वारिस्थितां भाविरविप्रतापात्,
प्रस्तां शरण्ये ! शरणार्थिनीयम् । विरौति संध्या कलहंसनादः,
कपाटमुद्घाट्य वीक्ष्य चैनाम् ।।२१॥ कलङ्कमुक्तं मुखचन्द्रषि
निरीक्ष्य संणाङ्कमयबिम्बात् । श्रीनिर्गता त्राश्रयणाय नूनं,
करोति याचाभुररीकुरुष्व ॥२२॥
कुमुदती कान्तवियोगतान्ता,
सतीव्रतं पालयितुं प्रवृत्ताम् । संध्यारणाग्नौ विशती विमुग्धा,
विलोकयनां दलशुभ्रवस्त्राम् ॥२३॥
है शरण्ये ! यह संध्या धीरे-धीरे तीक्ष्ण किरणों से तपनेवाले सूर्य के याताप से डर कर आपकी शरण में शरणाथिनी बनकर प्रायी है और यह आपके महल के द्वार पर खड़ी हुई कलहसों की चहाहाहट के छल से मानो रो रही है । अतः प्राप शयन कक्ष के कपाट खोलकर इसे देखें ।।२१।।
हे देवि ! कलङ्कविहीन प्रापकै मुत्रचन्द्र को लक्ष्मी सकलंक चन्द्र-- बिम्ब से निकल कर आपका सहारा लेने के लिए प्रार्थना कर रही है, अतः काप उसकी प्रार्थना स्वीकार करें।। २२ ।।
हे देवि ! देखो कान्त के वियोग से दुःखित हुई—बिलकुल मुरझाई हुई यह कुमुदती सतीनत को पालन करने के लिए कमलपत्ररूप शुभ्रवस्त्रों को धारण कर कटिबद्ध हो रही है । अतः संध्याकालीन लालिमा रूपी अग्नि में प्रवेश करती हुई इसे आप देखें ।। २३ ।।