________________
गर्धमानचम्यूः
भ्रमनिमलिन्द ध्वनिनाऽवगम्य,
मृणालिनों फुल्लमुखारविन्दाम् । रवेः प्रियस्यागमनं सरोग्य,
नेतुं गतां पश्य नु पाद्यमंभः ॥ २४ ॥
सा पदमिनी पदमपुरे विधुत्य,
परागरागं ालिने ददाति । पतिव्रताः स्येष्टसमागमेन,
कुर्वन्ति राजीवमुखे नु दानम् ।। २५ ॥
अहो ! प्राभातिकोऽयं कालः कियानस्ति सुरम्यो यस्मिन् प्रणिद्रया प्रान्तं शानं स्वस्थं प्रजायते । कर्णानन्वप्रचः शकुन्तानां रवो दिशि दिशि श्रूयते । अतः प्रतीयते तच्छलास परस्परं रात्रिसूखासिकां प्रच्छन्ति । धृक्षावृक्षान्तरेषु तेषां समुत्पतनात् तावदिवमेवानुमीयते यदेते निशायां विमुक्तानामात्मीयानां मार्गणां कुर्वन्ति ।
हे देवि ! यह मृणाग्निनी-कमलिनी गुंजार करते हुए भ्रमरों की ध्वनि से यह जानकर कि मेरे प्राणनाथ प्रा गये हैं, प्रसन्नचित्त होकर उनके स्वागतार्थ पादोदक लेने के लिए तालाब पर जा रही है, इसे श्राप देखें। । २४ ।।
हे देवि ! देखिये यह पनिनीपद्मपत्र के दोने में पराग-राग को भरकर भ्रमर को दे रही है । ठीक ही है-जो पतिव्रता होती हैं वे अपने इष्ट-पतिदेव के समागम से प्रसन्न होकर दान करती ही हैं ।। २५ ।।।
अहो ! देखों यह प्रभात का समय कितना अधिक सुहावना है जिसमें निद्रा से श्रान्त हुया ज्ञान स्वस्थ हो जाता है । प्रत्येक दिशा में कर्ण को आनन्द विभोर बना देनेवाला पक्षियों का कलरव सुनमे में पा रहा है । इससे तो यही समझ में आता है कि ये पक्षिगण आपस में मानो एक दुसरे की सुखासिका ही पूछ रहे हों । एक वृक्ष से दूसरे-दूसरे अन्य वृक्षों पर जो जाकर वे फूदकते फिर रहे हैं मानो ये रात्रि में बिछड़े हुए प्रात्मीयजनों की खोज करने में लगे हुए हों।