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वर्धमानचम्पः रात्रौ निस्तब्धताऽरण्ये याऽऽसीत्सा क्वाघुना गता । तस्था अन्वेषणायष श्रम्यते पशुभिः पृगे ॥२६॥
दिन बिना निपातसः । प्रदीयते मिलित्वते सूर्याय सलिलाञ्जलिः ॥२७ ।।
रजन्यां यन्न प्रत्येति नयनस्तमसाऽऽवृतम् । प्रातःकाले समायाते तत्स्पष्टं वस्तु बुध्यते ॥ २८ ॥
कोकः शोकं त्यक्त्वा कान्तां स्वीयां भृशं समाश्लिष्य । वदनारविन्दमधुना चुम्बति तस्या मुवा बहुशः ॥ २६ ॥
पशुजगत् जंगल की ओर जाने के लिए अपने-अपने स्थान से मानो इस बात की तलाश के लिए ही निकला कि रात्रि में जो जंगल में निस्तब्धता थी वह अब वहां से कहीं और चली गयी हो ।। २६ ।।
कमलपत्तों पर रात्रि में जो प्रोस की बूंदें थीं वे अब प्रातः होते ही गिरने लगी हैं इससे ऐसा भान होता है कि मानो ये सब मिलकर सूर्यदेव को जलाञ्जलि ही दे रही हों ।। २७ ।।
रात्रि में अन्धकार के कारण जो वस्तु नेत्रों से स्पष्ट नहीं दिखती थी, वह अब प्रातः काल होते ही स्पष्ट नजर आने लगी है ॥ २८ ।।
___ रात्रि में कोक पक्षी-चकोर चकोरी के वियोग से जो शोक में डूबा हुआ था, वह अब प्रातः होते ही देखो, अपनी बिछुड़ी हुई कान्ता-चकोरीका आलिङ्गन कर उसके मुखकमल को बारम्बार चूम रहा है ।। २६ ।।