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वर्धमान चम्पूः
द्वादशवर्षाणि यावत्' तपश्चर्यां विधाय सेन शुक्लध्यानस्यायो भेदोऽलाभि । तदनन्तरं पूर्वोक्तकथनानुसारेण तेन मोहनीय-ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायाख्यानि चत्वारि कर्माणि धात्यभिधानि क्षपितानि । एकस्मिन्वान्तमोहत्तिके काले घातिकमं प्रक्षयानन्तरमेव सर्वज्ञा दिप विशिष्टा पावाप्तिस्तस्य जाता । श्रतः स पूर्णशुद्धस्त्रिकालज्ञाता श्लिोकज्ञः संवृतः । प्रसीदयं कालो बेसाखशुक्लाया दशम्या अपराह्नस्य ।
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तीर्थकर महाबीरेणेतः पूर्व तृतीये भवे यदर्थं तपस्याकारि, अस्मिश्च वर्तमाने भवे राजसुखस्य गृहपरिवारस्य च परित्यागः कृतस्तदुत्तमं कार्य तस्य सिद्धिसौधासीनं जातम् । यथेदं तीर्थंकरस्य महावीरस्य महत्सौभाग्य
१५ दिन तक तपश्चरण किया, तब उन्हें शुक्लध्यान का प्रथम भेदपृथक्त्ववितर्क प्राप्त हुया । पूर्वोक्त कथन के अनुसार उन्होंने मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन चार घातिया कर्मों को समूल नष्ट किया । एक ही अन्तर्मुहूर्तकाल में घातिया कर्मों के विनष्ट होते ही वे सर्वज्ञपद से सुशोभित हुए प्रत: पूर्ण शुद्ध हुए वे त्रिकाल ज्ञाता और त्रिलोक के द्रष्टा बन गये । यह समय वैसाख शुक्लपक्ष १० मी तिथि के अपराह्न का था ।
तीर्थंकर महावीर ने इस भव से पूर्व तीसरे भव में जिसके निमित्त तपस्या की थी और इस वर्तमान भत्र में जिसके निमित्त राजसुख एवं गृह परिवार का परित्याग किया था उनका वह सर्वोत्तम कार्य अच्छी तरह सिद्ध हो गया। जिस प्रकार यह तीर्थंकर महावीर का बड़ा सौभाग्य था
1. गमय छदुमत्यन्तं बारमवाणिपंचमासेय चरमाणि दिणाणि यति रयणसुद्धो महावीरी ॥
खसितम्यां हस्तोत्तरमध्यमाश्रिते
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—- जयधवला भाग १
चंद्र क्षपकश्रेण्यातस्योत्पन्नं
केवलज्ञानम् ॥
साहसुद्ध दहमी माहारिक्खम्म वीरणाद्स्स रिजूकूलनदीतीरे अपरान्हे haar ||
-तिलोयप०