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वर्धमानवम्मूः
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मासीत् तथैव समस्तसंसारस्य विशेषतो भारतवसुंधराया अपि परमं सौभाग्यमासीत् । यत्तया सत्यज्ञासा सत्पथप्रदर्शकस्तयाऽसाधारणप्रभावशालिवक्ता च समुपलब्धः । जातस्तस्यास्तीर्थकर महावीरेणी पातायास्तीर्थकृत्प्रकृतेरुवयस्य सुवर्णावसरः। श्री तीर्थकरनामकर्मशफलं बद्धाऽच्युते योऽभवत् ।
शक्रोदेवसमूहसंस्तुतभवः कल्पे विकल्पातिगः । दिव्यस्त्रीनयनाभिराममुकुरो दिव्याम्बरो भूषण ।
विव्यस्तैः समलंकृतोऽवधिगुतो दिव्यांधवृद्ध्यन्धितः ।।। भुक्त्वा स्वः सुकृतोदयेन विविधान् भोगोपभोगाम् परान् । तत्यान् गलितस्थिविः समभवसिद्धार्थभूपात्मजः । स्यक्त्वा राज्यसुखं विहाय जननीसातं मुनियोऽभवत् । हुत्वा कर्मरिपून प्रबोध्य भविकानन्तेऽय मुक्ति गतः ॥ १० ॥
...-..उसी प्रकार समस्त संसार का एवं विशेषतः भारत वसुंधरा का भी यह परम सौभाग्य था जो उसे ऐसा सत्यज्ञाता एवं सत्पथप्रदर्शक असाधारण प्रभावशाली वक्ता प्राप्त हुग्रा । भगवान महावीर ने जो तीर्थकर नामकर्म की प्रकृति का बन्ध किया श्वा उसके उदयकाल का स्वर्ण अवसर अब उन्हें प्राप्त हुआ।
श्री तीर्थकर नामकर्म की प्रकृति का बंध करके जो अच्युत कल्प में इन्द्र की पर्याय से उत्पन्न हुए, देवों ने वहां जिनके भव की बारम्वार स्तुति की, देवाङ्गनाएँ जिन्हें देखदेखकर अपने नयनों को सफल मानतीं, जो दिव्य वस्त्रों से एवं दिव्य आभूषणों से सदा अलंकृत रहते, देशावधि वहां उत्पन्न होते ही जिन्हें प्राप्त हो गया एवं दिध्य ऋद्धि से जो समन्वित बने ।।६।।
वहां के विविध दिव्य भोगों को भोगते-भोगते जिन्हें अपनी गलित हो रही स्थिति-ग्रायु-का पता तक नहीं पड़ा~भान नहीं हुआ और वहां की भुज्यमान प्रायु जब समाप्त हो चुकी तो वहां से च्युत होकर जो [सद्धार्थ नरेश के पुत्र बने, पश्चात् राज्य सुखों का परित्याग करके और मातापिता के प्यार को भी छोड़कर के जिन्होंने मुनि दीक्षा धारण की एवं कर्म शों को परास्त करके तथा भव्य जीवों को सद्बोध देकर जो मुक्ति को प्राप्त हुए ऐसे वे वीर प्रभु सदा जयवन्त रहें ।। १० ।।