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वर्धमानबम्पूः च्युत्वा तस्मात्रिदशवनितागीतकीर्तमहिन्याः,
सिद्धार्थस्य प्रथिता ज्ञातृशान ज्ञः । कुक्षी शुक्तौ मणिरिव विभुः शान्तिदोऽवातरत्सः,
सत्यं तावद्भवति महतां जन्म स्वान्योदयाय ॥ ११ ॥
तपांसि तप्त्वा विविधानि येन निजात्मशुद्धिः समवापि येन, कैवल्यमुद्भाव्य विभाव्य सम्यक कुबोधतम्याऽवृतजोवलोकम् । व्यवधायि सज्ज्ञानमयः प्रकाशो वोरातियोराय नमोऽस्तु तस्म, सौभाग्यमेतत्खलु भारतस्य यस्मिन् प्रजज्ञे त्रिशलासुतोऽयम् ॥ १२ ॥
उस अच्युत स्वर्ग (१६वें कल्प) से च्युत होकर भगवान महावीर का जीव जातृवंशीय यशस्वी नरेश सिद्धार्थ की पटरानी की कुक्षि में प्रयतरित हुआ । त्रिशला महिषी की महिमा--कीति की गाथा-स्वर्ग की देवियों ने मुक्तकंठ से गाई । सिद्धार्थ का यश भी चतुदिग् व्यापी हो गया। सच बात तो यह है कि त्रिशला की कुक्षि में महावीर का जौब इस प्रकार रहा जिस प्रकार शुक्ति में मुक्ताफल रहता है । त्रिशला के गर्भवती होने से समस्त बन्धुजनों को अपार हर्ष हुअा। सच है महापुरुषों का जन्म स्वयं के और अन्य प्राणियों के अभ्युदय के लिये होता है ।। ११॥
महावीर प्रभु ने छमस्थ अवस्था में अनेक प्रकार के तपों की आराधना की और उनके प्रभाव से उन्हें कर्मक्षय होने पर कैवल्य प्राप्त हुया । उसे प्राप्त कर उन्होंने प्रज्ञानरूप अन्धकार से प्राच्छादित हुए इस जीव लोक को सम्यग्ज्ञान रूप प्रकाश प्रदान किया । ऐसे उस वीरातिवीर प्रभु को मेरा नमस्कार हो । यह भारत देश का परम सौभाग्य है कि जिसके प्राङ्गण में त्रिशला का ऐसा लाल जन्मा ।। १२ ।।