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वर्धमानचम्पूः
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परीषहा यस्य न चित्तवित्तं हतु सशक्ता अपि संबभूवुः । वीराय दुर्वारमनोजवार्य विच्छेदिने सन्मतये नमोऽस्तु ॥ १३ ॥
घातिकर्माणि संधात्य कैवल्यं समवाप्य छ । धार्मिकज्ञानरिक्तेभ्यो नृभ्यो बोधमसावदात् ।। १४ ॥
बह्नस्तापो गुरुवर ! यथा कच्चलं स्वर्णवर्णम् ।
अन्तर्भूत्वा मलविरहितं सर्वशुद्धं करोति । एवं स्वामिन्नसि मम मनोगेमन्तर्गतस्त्वम् ।
स्वल्पं ज्ञानं समलमपि मे निर्मलं स्थान किस्वित् ॥ १५ ॥
तपस्या काल में उन्होंने अनेक परीषह सहे । वे परीषह सशक्त थीं—फिर भी वे उनके चित्तरूपी धन को हरण करने में समर्थ नहीं हो सकी। जिसके प्रभाव के आगे बड़े-बड़े वीर नत-मस्तक हो गये ऐसे उस दुर्वायं वीर्यशाली कामदेव के मन का मान मर्वन करनेवाले सन्मति-महावीर को मेरा नमस्कार हो । १३ ।।
ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, मोहनीय और अन्तराय इन ४ धातिया कर्मों को समूल नष्ट करके जिन्होंने केवलज्ञान आदि रूप अनन्त चतुष्टय प्राप्त किया और उसे प्राप्त कर फिर जिन्होंने धामिक ज्ञान शुन्य जनता को धर्म का स्वरूप समझाया ऐसे वीर प्रभु को मेरा नमस्कार हो ।। १४ ।।
हे गुरुदेव ! जिस प्रकार अग्नि का ताप मलिन स्वर्ण के भीतर प्रविष्ट होकर उसके भीतर बाहर को मलिनता को नष्ट कर देता है और उसे निर्मल कर चमका देता है उसी प्रकार ग्राप मेरे मन मन्दिर में बिराजमान हैं अतः मेरा समल स्वल्प ज्ञान भी यदि निर्मल हो जाता है तो इसमें कौनसी अनोखी बात है ।। १५॥