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वर्धमानचम्पूः
राकेशपत्रस्थ पितामहेन कृते जगामैष समाप्तिमत्र । कैवल्यरूपः स्तनको विदध्याद्विपश्चितां चेतसि मोदभारम् ॥ १६ ॥
यावद्नाजति शासनं जिनपते यावच्च गंगाजलम् ।
यावच्चन्द्रदिवाकरौ वितनुतः स्वीयां गतिं चाम्बरे । तावन्मे भुवि वर्धमानचरितं चम्प्वाख्यमेतत् सताम् । चित्तं ह्लादयतु] व्रजेषु विदुषां पापठ्यमानं सदा ॥ १७ ॥
श्री सटोले सुतेनेयं समन रचिता मूलचन्द्रेण मालथौनाप्तजन्मना ॥। १८ ।।
सप्तमः स्तवक समाप्तः
राकेशकुमार के जनक के जनक द्वारा निर्मित इस वर्धमानचम्पू काव्य में यह कैवल्य रूप स्तबक समाप्त हुआ, यह विद्वानों के मन को आनन्ददायक हो ।। १६ ।।
जब तक इस धराधाम पर जिनेन्द्र का शासन शोभित है, गंगा का जल प्रवाहित है तब तक मेरा यह वर्धमानचम्पू जिसमें वर्धमान प्रभु का चरित्र वर्णित हुआ है विद्वन्मंडली में सुन्दर रीति से पठित होता हुआ सन्तजनों के चित्त को ग्रानन्दित करता रहे ।। १७ ।।
श्री सटोलेलालजी के सुपुत्र और श्री सल्लोमाता की कुक्षि से जन्मे मुझ मूलचन्द्र ने इस चम्पू – वर्धमानचम्पू – की रचना की है । सागर जिलान्तर्गत मालथौन मेरी पवित्र जन्मभूमि है ।। १८ ।।
सप्तम स्तबक समाप्त