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भ्रष्टमः स्तबकः
समवशरणम्
हे वीर ! नागदमनीव तव स्तवोऽयम्,
संसार तीव्रगरलं भविनां निहन्ति ।
मंत्र,
किं न प्रभो ! विषविकारमपाकरोति ॥ १ ॥
पापठ्यमानमहिवष्टजनस्य
गर्भस्थेऽपि त्वयि सति विभो ! व्याधयो वाऽऽधयो वा
नष्टा जाता प्रवगतमिदं प्राणिनां स्वत्प्रसादात् 1 सानास्वां ये नयनच कैफ कंट पिबन्ति ।
तेषां तासां विकटनिचयो नश्वरः किं न भूयात् ॥ २ ॥
भ्रष्टम स्तबक
समवशरण
हे वीर प्रभो ! प्रापका यह स्तव संसारस्य जीवों के संसाररूपी तीव्र विष को नागदमनी के समान वैसे ही नष्ट कर देता है जैसे सर्प से दष्ट व्यक्ति के विष को जरा जा रहा मंत्र - विषनाशक मंत्र - नष्ट कर देता है ॥ १ ॥
हे विभो ! यह बात जगजाहिर है कि जब थाप स्वर्ग लोक से च्युत होकर त्रिशला माता के गर्भ में अवतरित हुए तो श्रापके उस प्रभाष से प्राणियों की आपत्तियां एवं विपत्तियां सब नष्ट हो गई, तो जिन्होंने श्रापके दर्शन किये हैं या जो करते हैं उनकी भयंकर प्रापत्ति विपत्तियों का समूह क्यों नहीं नष्ट होता होगा || २ ||