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वर्धमान सम्पूः
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सत्यमिदम्भवस्यनाचारविशिष्टसृष्टिर्यका जगत्या, प्रकृतिः स्वयं द्वाक् । प्रकम्पते, तत्प्रभवप्रभावाद्वीरावतंसी गुणराशिपूतः ॥६॥ उदेति कश्चिजगतो विपत्ति दूरीभवेत्तत्प्रबलोपवेशात् । पाता च नेता च भवत्यतो ऽयं सर्वस्य जन्तो हितकारकत्वात् ॥१०॥
इलः षष्ठीशताधिकद्विसहस्त्राग्वेभ्यः पूर्व युग्मम् भारतभूरपि धर्मप्राणा पापभारेणाकान्ता सती प्रकम्पिता जाता । तस्मिन् काले धर्मगुरुत्वेन धर्मावतारकत्वेन जनतया ये अनाः संमानिता प्रासन् तेषामेव पिशिताशनाभिलाशमा लपनं मांसभक्षणे लुग्धं जातम् । अतस्ते स्वीयां तां मांसशोणिसभक्षणाभिलाषां निरोद्धमक्षमाः सन्तः स्वर्ग-राज्य-पुत्र-धनप्राप्ति
सच है-जन संसार में अनाचार – अत्याचारों का साम्राज्य छा जाता है तब प्रकृति में बहुत जल्दी प्रकम्पन होता है-वह करवट बदलती है। इसके प्रभाव से कोई गुणराशिस्वरूप वीरशिरोमणि महान् प्रात्मा उत्पन्न होता है जो अपने प्रबल उपदेशों के द्वारा उसकी विपत्तियों को चकनाचूर कर देता है । मानव के मानसपटल को बदल देता है। अतः समस्त प्राणियों का हितसाधक होने के कारण वही जगत का त्राता और नेता बन जाता है। .
प्राज से २६०० वर्ष पहले धर्मप्राण यह भारतभूमि पाप के भार से माकान्त हो रही थी। अतः उस काल में जनता ने जिन्हें अपना धर्मगुरु और धर्मावताररूप से मान रखा था, उनका स्वयं का लपन मांस खाने की अभिलाषा से लोलुप बन गया था। उन्होंने जनता को गुमराह किया
और अपनी मांसभक्षण की अभिलाषा को शान्त करने के लिए उसे "यज्ञार्थ पशवः सृष्टाः" "अजयष्टश्य" इन वेद मन्त्रों का प्रमाण देकर पशुयज्ञ करने के लिए बाध्य किया। जनता भोलीभाली थी । वह इनके चंगुल में फंस गई । जनता को यज्ञ करने के फलस्वरूप यह बतलाया जाने लगा कि यज्ञकर्ता को स्वर्ग की प्राप्ति होती है, राज्य का लाभ होता है । पुत्र के मंह को देखने का सुनहरा अवसर मिलता है, धन का उसके घर में