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वर्णमामचम्पू:
प्रलोभनेर्जनतां समाचकृषुः । प्राकृष्टया तया मुग्धया ते यज्ञानकारयन् । "यज्ञार्थं पशवः स्रष्टाः, अजैर्यष्टव्य" इत्यादिभिर्वेदवाक्यरनेकरच मंस्तानाकृष्य तेषु यज्ञेषु निरागसां निरीहाणां मूकानाम विपशूनां बलि दापयन्ति स्म । यदा कदा स्वयमपि च धर्मोऽयमिति घोषणापूर्वक तानि हत्य तन्मांसहवनं कुर्वन्ति स्म ।
हेयादेयविवेकविकला गौरिव सरलस्वभावा मुग्धा जनता स्वार्थसाधनतत्पराणां तेषां धर्मगुरुत्वेन मन्यमानानां वचनं परमात्मवचनं मत्वा दयोज्झितमपि तत्पापकृत्यं धर्मोऽयमित्यमन्यत । नासीत्सवा कोऽपि तेषा दयार्हाणां निर्बलानां सहायकविहीनानां करणोत्पावकवाचां श्रोता याद्रवितान्तःकरणस्तद्रक्षणबद्धकक्षः कोऽपि त्राणकर्ता, अतो मांसलुग्धकानां तेषां धर्मान्धभक्तानां पुरोहितानां पिशिताशनगडितारूपः स्वार्थों जनसायाश्च धर्मविषयकज्ञानाभावस्तत्पापकृत्यस्य नेतत्वमकार्षीत् ।
अम्बार लगा रहता है । इस तरह के प्रलोभनों के जाल में इन्होंने जब जनता को फंसा लिया तो वह निधड़क होकर यज्ञ करवाने लगी। दीनहीन निरपराधी पशुत्रों की बलि दी जाने लगी । यदा कदा पुरोहितजन भी यह कृत्य "धर्म है" इस प्रकार की घोषणा करते हुए मारे गये पशुओं के मांस से हवन करने लगे ।
उस समय जनता इतनी अधिक भोली थी कि 'हेय क्या है और उपादेय क्या है' वह यह नहीं जानती थी । अतः हेयोपादेय के ज्ञान से विकल हई जनता ने जो गाय के जैसी सीधी साधी थी स्वार्थ के साधन में तत्पर इन धर्मगुरुयों के कथन को ईश्वर का वाक्य मानकर ही इस पापमय कार्य को धर्मरूप से अपनी श्रद्धा का विषय बनाया-उसे तन्मय होकर अंगीकार किया।
उस समय दीनहीन दयाई मूक प्राणियों की करुणध्वनि को सुनकर जिसका हृदय पसीज जावे ऐसा कोई भी नहीं था और न ऐसा भी कोई था जो उनकी रक्षा करने में अपनी कमर बांधकर आगे आता अत: मांसलन्धक उन धर्मान्ध गरुनों के-पुरोहितों के मांसभक्षणकरनेरूप स्वार्थ ने और जनता के अज्ञान ने उस पापकृत्य का नेतृत्व किया । उस