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वर्धमानचम्पूः
___21 तस्मिन्नवसरे जनसाधारणकृते सज्ज्ञानप्रकाशप्रदायकस्य तेषां कुमार्गगामिना भ्रष्टानां धर्मान्धभक्तानां पुरोहिताना हृदयपरिवर्तनकारकस्य च जनस्यातीवावश्यकताऽसीत् यतो धर्मप्राणस्वरूपस्य भारतस्यायं महान् पापकलपङ्कोऽकात् प्रक्षालितः स्यात्, लधिष्टो वा भवेत् । दुगंधो बाऽस्य वेशाबहिनिर्गतो वा जायेत
गाढान्धकारे पतितस्य पुसो
यथाऽस्ति दीपः शुभमार्गदाता । शाम तथाऽमानतमस्यपार
निमग्नचिसस्य हितप्रकाशि ॥ ११ ॥ यस्मानिवृत्तिरहिताद्धितस्य संप्राप्तिरीदृशं ज्ञानम् । विपरीताभिनिवेशानिमुक्तं प्रमाणपसेवि ॥१२॥
काल में जन-साधारण के लिये ज्ञानरूपी प्रकाश देनेवाले की एवं उन कुमार्गगामी भ्रष्ट धर्मान्धभक्त पुरोहितों के हृदय को परिवर्तन करानेवाले जन की अनिवार्य आवश्यकता थी, जिसके प्रभाव से धर्मप्राण-स्वरूप इस भारतवर्ष से यह महान् पापकलङ्क प्रक्षालित हो जाये या बहुत ही कम हो जावे; अथवा इस देश से इसकी दुर्गन्ध ही बाहर निकल जाये ।
गाढ़ अन्धकार में पतित व्यक्ति को शुभमार्गका दिखानेवाला जैसा दीपक होता है, वैसा ही ज्ञान अज्ञान रूपी अन्धकार में डूबे हुए प्राणी को उसका हितप्रदर्शक होता है ।। ११ ।।
जिस ज्ञान से अहित का परिहार हो और हित की प्राप्ति हो ऐसा विपरीताभिनिवेश से रहित ज्ञान ही प्रमाणभूत होता है, अर्थात् ऐसे प्रमाणभूत ज्ञान से ही जीव को हित-प्राप्ति और अहित से उसका अपना बचाव होता है ।। १२ ॥