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वर्षभानचम्पू:
हिंसाविदुष्कृत्यविधान दक्ष ज्ञान न समझानमनर्थकृत्वात् । न तेन शान्ति न सुख लभेत जीवः परह कदापि किञ्चित् ॥ १३ ॥
यत्रास्ति हिंसा न समस्ति तत्र,
धर्मो यतः प्राणिक्यान्वितः सः। न बालुकापेषणतः समाप्ति,
स्तलस्य कुत्रापि कयापि दृष्टा ॥ १४ ॥
प्राणिनां पोड़नं पापं पत्राऽस्ति तस्कथं भवेत् । धर्मो धर्मस्थहिसैव तत्वजस्तद्विचार्यताम् ॥१५॥
जीव जिस ज्ञान से हिंसादिदुष्कृत्यों के करने में प्रवृत्त हो जावे .. दक्ष हो जाये वह जान सच्चा ज्ञान नहीं है । वह तो कुज्ञान है । ऐसे ज्ञान से जीव को न इस लोक में शान्ति और सुख मिलता है और न परलोक में ही ॥ १३ ।।
जहां प्राणियों पर दया है वहीं धर्म है और जहां उनकी हिंसा है वहां अधर्म है । जैसे बालुका के पेलने से जीव को तेल की प्राप्ति नहीं होती वैसे ही हिंसा से धर्म की प्राप्ति नहीं होती ।। १४ ।।
__ प्राणियों को पीड़ा पहुँचाना पाप है । यह पाप जहां पर है वहां धर्म कैसे हो सकता है ? धर्म तो अहिंसा रूप ही होता है ।। १५ ।।