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एतन्नवीन कृति वृद्धियुतं विधाय,
प्रत्यर्पयामि महिते ! तदुरीकुरुष्व ।। "त्वदीयं वस्तु तुभ्यमेव समर्पये" के अनुसार इस कृति को कवि ने श्रद्धावनत होकर अपनी ममतामयी माता के चरणों में रख दिया है । इसके आगे भी कवि यह वामना करता है कि अग्रिम जन्म-जन्मान्तरों में भी तुम्ही मेरी माता हो श्रीर में हो तुम्हारा पुत्र होऊ। पुन की यह भावना अपनी माता के प्रति अपार श्रद्धा और अलौकिक प्रेम की परिचायिका है।
शास्त्रीजी अपनी पत्नी को प्रेरणाप्रदायिनी मानते हैं । वे कहते हैं कि साहित्य-सृष्टि की प्रक्रिया में पत्नी का योग एवं सहयोग नितान्त अपेक्षित है
साहित्यनिर्माण विधौ च पुसो योमेन पल्या भवितव्यमेव । विशोभते चन्द्रिकर्यच युक्तो विधो: प्रकाशोऽप्यनुभूत एपः ।।
ऐसी पत्नी भाग्य से ही प्राप्त होती है । उनके परिवार में चार पुत्रियों हैं जिनका उल्लेख उन्होंने अपनी इस कृति में किया है । अपना सहमिणी मनवादेवी का नामोल्लेख भी स्तबकों के अन्त में मनवावरेण शब्द में किया है। ___काव्य में कवि को अपने गुरु के प्रति अगाध भक्ति प्रकट होतो है । अपने गुरु श्री अम्बादास शास्त्रो के विषय में उनके उद्गार स्पृहणीय हैं । कवि कहता है कि गुरुवार को ज्ञानमयी महोदयवती एवं सद्भावा से आतप्रोत मूति को देखकर सरस्वती ने उन्हें अपना पुत्र माना और इसी कारण उनमे षड्दर्शनों का रहस्य एवं ज्ञान समाहित कर दिया
यस्य ज्ञानमयीं महादयमयीं षड्दर्शनोहाधिकाम्, सद्भावेः समलकृता सुत्रपथप्रस्थापिका निर्मलाम् । मूर्ति वीक्ष्य सरस्वतो भगवती यं दारकत्वेन वे, स्वीच भक्तात्स मेसमगुणो विद्यागुरुः श्रेयसे 1
ग्रन्थ के अन्त में भावविभोर होकर कवि अपने विद्यामुरु के चरणों में नत-मस्तक हो जाता है-- विद्यागुरो ते गुणराजिरम्यां कोर्तेः कथा वक्तुमशक्तचित्तः । सहस्रजिह्वोऽपि च मे कथा का, स्वल्पावबोधोऽस्म्यहमेजिह्वः ।।