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एक सुरम्य स्थल है। परवार कुलोत्पन्न श्री सटोलेलाल इनके जनक एवं श्रीमती सल्लोदेवी इनकी माता थीं। प्रस्तुत काव्य के अन्त में उन्होंने स्वयं उद्धत किया है
सल्लो माता पिता मे श्री सटोलेलाल नामकः ।
जिनधर्मानुरागी स परवारकुलोद्भवः ।। वे अपने माता-पिता के एक मात्र पुत्र थे पर देव-दुबिपाक से अल्पपायु में ही उनके पिता दिवंगत हो गये । उस समय शास्त्रीजी की अवस्था केबल अढाई वर्ष की थी। वैधव्य के असीम कष्ट से दुःखी होते हुए भी माता ने लाड़-प्यार से उनका पालन पोषण किया । निर्धनता समस्त कष्टों की जननी होती है। अपनी विपन्नता की पीड़ा का उन्होंने सजीव चित्रण किया है । वे लिखते हैं कि उनका जीवन अभावमय रहा
मारे समाजन्मा हमारे चाथ बधितः ।
प्रभावे लब्धविद्योऽहं स्वकर्तव्ये रतोऽभवम् ।। शास्त्रीजी ने प्रभाय से सतत संघर्ष किया और अपने मार्ग की स्वयं प्रशस्त किया । उन्होंने अपनी व्यथा को इस प्रकार अभिव्यक्त किया है
रष्टा मयानेकविधा धनाढ्याः, गणोऽपि तेषामधिकारिणाञ्च । परं न विद्वज्जनगण्य गुण्य, गुणानुरागी हृदयाऽत्र दृष्टः ।।
इसी तथ्य को साधारणीकृत करते हुए ऊपर से सहानुभूति प्रदशित करनेवाले किन्तु मन से कठोर धनिकों को बदरीफल के समान बताकर उन्होंने अपनी पीड़ा की पराकाष्ठा को मुखरित किया है -
येऽपि केऽपि मया इष्टा आठ्या बदरिकानिभाः ।
नारिकेससमानव सौभाग्यारक्वापि वीक्षिताः ।। परन्तु शास्त्रीजी की लगन और माता की ममतामयी प्ररणा ने उन्हें, समग्र झंझावतों को हटाकर, आगे बढ़ने को प्रेरित किया। माता के स्नेहिल उपकार को कविवर जिन शब्दों में व्यक्त करते हैं वह उनकी अनन्य श्रद्धा एवं भक्ति को अविकल रूप में प्रकट करता है । माता ने उनका जो उपकार किया है उसके अंश को भी वे चुका नहीं सकते । जीवन भर उस ऋण से मुक्त होना सर्वथा असम्भव है
मातस्त्वया मम कृतोऽस्ति महोपकारो, यावास्तवंशमपि पूरयितु न शक्तः ।