________________
गुरु की महिमा का वर्णन सहस्रजिह्न भी नहीं कर सकता, फिर कवि का तो सामर्थ्य ही कितना ?
कविवरेण्य शास्त्रीजी ने अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया। चाँदह सर्पों में उपनिबद्ध "लोकाशाह" नामक संस्कृत महाकाव्य उनकी प्रथम रचना है । पूर्वार्द्ध एवं उत्तरार्द्ध रूप – दो भागों में विभक्त 'वचनदूतम्' नामक काव्य ध्यानमग्न नेमिनाथ के समीप उपस्थित हुई राजुल की मनोवेदना का सुरुचिपूर्ण अंकन है। उत्तरार्ध में राजकुल के हताश होकर गिरि से लौट आने का समाचार सुनकर उसके माता-पिता और सखियों के द्वारा प्रकट की गयी श्रन्तर्द्वन्द्र से श्रोतप्रोत उनकी मानसिक व्यथा का अनुपम चित्रण हुआ है । इस काव्य की एक विशिष्टता यह रही है कि पूर्वाधं में मेघदूत के प्रायः समस्त श्लोकों के अन्तिम पादों की एवं उत्तरार्ध में उत्तरमेघ में आये कतिपय श्लोकों के अन्त्य पादों की पूर्ति की गयी है ।
आपकी अन्य रचनाओं में प्राचार्य समन्तभद्र कृत प्राप्त-मीमांसा" नामक ग्रन्थ की विस्तृत टीका है, जो १०५ क्षुल्लक श्री शीतलसागरजी द्वारा सम्पादित होकर शान्तिवीर दिगम्बर जैन संस्थान, श्री महावीरजी द्वारा प्रकाशित है।
आपके द्वारा कतिपय अनूदित ग्रन्थों में “युक्त्यनुशासन" का हिन्दी अनुवाद भी है, जो दो भागों में प्रकाशित हो चुका है। दिगम्बर भट्टारक सुरेन्द्रकीर्ति द्वारा रचित "चतुर्विंशतिसन्धान काव्य" के तेरह अर्थों का अनुवाद भी आपने किया है। आपका एक अन्य ग्रन्थ "जैन दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन" भी है। ये दोनों ही प्राप्य नहीं है । प्रस्तुत ग्रन्थ "वर्धमान चम्पू ( सानुवाद ) " आपकी अन्तिम रचना है जिसका प्रणयन 78 वर्ष की आयु में सम्पन्न हुआ ।
वर्धमान चम्पू पाठ स्तबकों में विभक्त है जिसमें तीर्थंकर महावीर के जन्म से लेकर कैवल्य प्राप्ति तथा अन्तिम स्तबक में समवसरण का हृदयस्पर्शी चित्रण हुआ है ।
तीर्थंकर की जन्मभूमि का वर्णन करते हुए कवि कहते हैं कि भरत क्षेत्र में भूमण्डल का अलंकारस्वरूप एक प्रार्थ खण्ड है जहाँ की भूमि समय-समय पर तीर्थंकरों के जन्म से पवित्र होती रही है
तत्रास्ति भूमण्डलमण्डनं वै, खण्डं तदार्याभिधमुत्तमाङ्गम् ।