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वर्धमान चम्पूः
विहरन्नुज्जयिन्या नगर्या श्रभ्यर्णमागतः । नगर्यां महिर्तमानेऽतिमुक्तकास्ये पितृवने निर्जन मित्रमधिष्ठानं प्रशान्तवातावरणसनाढ्यं चेति विज्ञायात्मध्याने निमग्नोऽभूत् प्रभुः । यदा सूचीमुखाग्रदुर्भेदेन तमसाऽऽबुता विभावरी दिशोऽन्तरालमाच्छादयन्ती समागता तथा समागात्तत्रैकः कश्चित् स्थाणुनामको रुद्रो रुद्रपरिणामोपेतः । वृष्टस्तेन ध्यान निर्मग्नमनास्तपस्थी स महावीरः । संवीक्षणमात्रत एवासौ शेषान्धो ध्याननिरतं तं ध्यानाद्विचालयितुं विवेकविहीनो भूत्वा तस्योपरि विविधान् महोपसमरिचकारतथाहि सर्वप्रथमं हि तेन स्वसिद्धविचारलेन स्वकीयं स्वरूपं विरूपं घ विधाय भययं कर्णकुहरस्फोटनशीलो वाचालित बिमंडलोट्टहासो विहितः । पश्चानिर्गताग्निकिंजल्कजालं स्वलपनं दुर्बशनीयं विकुर्वन् ध्यानारूढं तं प्रत्याक्रमणं कर्तुमधावत् तदा तेन भूतप्रेतसत्कानि भीतिकराणि नृत्यानि वितेनिरे । करालव्याल केसरिकर्यादीनां विभीषिको पोका श्राखा
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एक दिन की बात है कि वे बिहार करते हुए उज्जयिनी नगरी के निकट आये और उस नगरी के बाहरवाले श्मशान में जिसका नाम प्रतिमुक्तक था, ध्यान करने योग्य शान्त स्थान मानकर आत्मध्यान में निरत हो गये । जब रात्रि का समय आया तो वहां के निवासी स्थाण नाम के एक रौद्र परिणामो रुद्र ने उन्हें ध्यान से निमग्न देखा | उन्हें ध्यान में निमग्न देखकर वह क्रोध से अन्धा बन गया । उसी क्षण उसने उन्हें ध्यान से विचलित करने के लिए उनके ऊपर अनेकविध उपसर्ग करने प्रारम्भ कर दिये 1 सबसे पहिले उसने अपनी सिद्ध हुई विद्या के बल से अपना निजरूप ऐसा विरूप बनाया जो भयप्रद था। उसके द्वारा किये गये अट्टहास ऐसे कठोरातिकठोर थे कि वे कानों की झिल्लियों को भी फोड़े डालते थे । उसने अपना मुख विक्रियाशक्ति से ऐसा बना लिया था कि जिसमें से अग्निज्वाला के केशर के जैसे लाल स्फुलिंगजाल निकल रहे थे। ऐसी विकुर्वणा करके वह ध्यानारूढ महावीर की ओर आक्रमण करने के लिए दौड़ा। उस समय उसने भूतप्रेत आदि के भयोत्पादक रूप बनाये और इन रूपों को बनाकर उसने ऐसे-ऐसे नृत्य किये कि जो शरीर में