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वर्धमानधम्पूः आने तिरूपेण समुच्चारिताः। रजोऽग्निवर्षाऽपि तस्योपरि विकराला प्रबलवेगवती विहिता। एवंविधा अनेके महीपसर्गास्तीर्थकर तं विभीषयितुमात्मध्यानातिचालयितुं च तेन धकिरे। परन्तु न लाधा तेन कापि सफलता । न खलु परमतपस्त्रो बर्षमान एभिर् मर्मन्तुदैरुपसर्गस्तदा किञ्चिवथ्यमैषीत् । न च तस्य वनवृषभनारायसंहननस्य चित्तं ध्यानान्मनागपि वलितम् ।
यया यथाऽनेनोपसस्सेिनिरे तथा तयाऽयं प्रबलवात्यायामचल इवाचलोऽतिष्ठत् । अवसाने रौद्ररूपश्चारी स रुनः स्थाणुः कृतेषूपसर्गज्वप्यसफलतामलभमानस्तूष्णीमास्थायव स्वस्थानं जगाम ।
कंपकंपी छुड़ा देते थे। भयंकर व्याल, सिंह, हाथी आदि जीवों की गर्जनाएँ की । धूलि एवं अग्नि की वर्षा की। इस प्रकार अनेक विकराल महोपसर्ग उसने महाबीर को भयभीत करने एवं आत्मध्यान से च्युत करने के लिए और आत्मध्यान से विचलित करने के लिए किये परन्तु उसे कुछ भी सफलता नहीं मिली क्योंकि भगवान महावीर उसके द्वारा किये गये उन मर्मभेदी उपसर्गों के आगे न तो ध्यान से विचलित हुए और न भयभीत ही हुए क्योंकि वे परमतपस्वी और बच्चवृषभनाराचसंहनन के धारी थे।
रुद्र के द्वारा ज्यों-ज्यों घोर उपसर्ग किये गये त्यों-त्यों वे वायु के निष्कंप पर्वत की तरह प्रात्म-ध्यान में अचल होते रहे । अन्त में वह रौद्ररूपधारी स्थाणु रुद्र के द्वारा किये गये उपसर्गों में सफलता प्राप्त न करने के कारण चुपचाप अपने स्थान पर चला गया ।