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वर्धमानमम्पूः
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यद्यपि सूर्यविरोधी तत्कार्यनिरोधीह शशी शत्रः । कृश्यं लथापि कुरुते स्वयं सूर्यो भपं मुक्त्वा ॥ ३४ ॥
सप्तभयविण्मुलः सम्यग्लानी च निर्भो भुत्वा । विहरति निखिलस्थाने पुर्यावरन्तरं मुक्त्वा ॥ ३५ ॥
समदृष्टियुतः साधुर्यतोऽस्ति सर्वत्र, नव कुत्रापि । शत्रौ मित्रे विषमो विषमे च तत्र न साधुत्वम् ॥ ३६ ॥
चन्द्रोदये यथा चन्द्रकान्तमणिवति तथंव शत्रौ मित्रे बने भुवने सुखे दुःखे च योगे बियोगे वा समष्टिसम्पन्नस्थ साधोर्गुणानां
यद्यपि सूर्य का विरोधी और उसके कार्य का निरोधी शत्रु चन्द्रमा है फिर भी सूर्य अपना कार्य तो निर्भय होकर करता ही है ।। ३४ ।।
इसी प्रकार सम्यग्ज्ञानी पुरुष सात प्रकार के भयों से निर्मुक्त होकर हर एक स्थल पर विहार करता है । उसके चित्त में ग्राम-नगर आदि का भेद नहीं होता ।। ३५ ।।
चाहे शत्रु हो चाहे मित्र हो, सुख हो या दुःख हो, किसी भी प्रकार के अनुकूल या प्रतिकूल संयोगों में समष्टिवाला साधु विषम दृष्टिवाला नहीं होता। जहां ऐसी दृष्टि नहीं है वहाँ साधुत्व नहीं है ।। ३६ ।।
जिस प्रकार चन्द्रमा के उदय होने पर चन्द्रकान्तमणि द्रवित होने लगता है उसी प्रकार शत्रु-मित्र में, वन में, भवन में, सुख में, दुःख में, योग में और वियोग में समष्टिसम्पन्न साधु के गुणों के चिन्तवन करने से