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बर्धमानचम्पूः
चिन्तनाच्चिन्तकस्य बुरितानि विगलितानि भवन्ति । नयनालगताजनमिव पापानि पापाग्यश्रुभिरिव तद्गुणर्मनोगहानिकास्यन्ते लोकेषणाहोनान्तःकररावृत्तयः साधवो दिगंगनालिङ्गितचारुकीर्तयो जायन्ते । वसन्तु ते मे हृदये मुनीन्त्रा भवोवधेः संतरणे पटिष्टाः । यसेवयान्येऽपि जनाः सुभक्ताः स्वं तारयन्त्याशु भवादमुष्मात् ॥ ३७॥
स्वात्मानं साधयन्त्याची पश्चादन्यस्य धारमानः । साध्वाचारप्रतिष्ठायां प्रोक्तास्त एष साधवः ॥ ३८ ॥
न निन्वया खिन्नमतिः प्रसन्नः स्तुस्या न यः स्थास्सुखितः कदापि । एवं विधा यस्य समस्ति वृत्तिर्मुनिः स मान्यो भवति प्रपूज्यः ।। ३६ ॥
चिन्तवनकर्ता के दरित वित होने लगते हैं-विगलित होने लग जाते हैं । जिस प्रकार आँखों में लगा हुआ अंजन प्रांसुओं द्वारा वहां से बाहर कर दिया जाता है उसी प्रकार संत-साधुओं के गुणों द्वारा मनोगृह में सेचिन्तवन कर्ता के चित्त में से पाप निकाल दिये जाते हैं । साधुजन लोषणा से विहीन चित्तवत्तिवाले होते हैं। इसी कारण उनकी सूहावनी कोति चारों दिशारूपी अंगनाओं से प्रालिंगत हो जाती है।
जो साधजन संसाररूपी समुद्र से पार होने में अत्यन्त पट हैं वे मेरे मनमन्दिर में सदा विराजमान रहें । जिनकी सेवा करके अन्य भक्तजन भी अपने आपको इस संसार से पार लगा लेते हैं ।। ३७ ।।
__ "सानोति प्रात्मानमिति साधुः" इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो अपनी आत्मा के हित करने में कटिबद्ध रहता है, पश्चात् अन्य जीवों का हित करता है वही साधु की प्राचारसंहिता में साधुपद से विभूषित किया गया है ।। ३८ ॥
साधजन न तो अपनी निदा में खेद-खिन्न ही होते हैं और न अपनी प्रशंसा में प्रसन्न ही । साधुजनों की ऐसी वृत्ति होती है । ऐसी बृत्तिवाला पवित्र आत्मा ही मुनि-साधु होता है, वही जगत्पूज्य होता है और सम्प्रदायातीत होने से सर्वजनमान्य होता है ।। ३६ ।।