________________
148
वर्धमानचम्पू:
सांसारिक सुखं दुःखं कल्पनाशिल्पिनिमितम् । यस्मै यद्रोचते तस्मै तत्सुखं दुःखमन्यथा ॥ ३१ ॥
पाकुलिताविहीनं तु सुखमुक्तमतोऽन्यथा। दुखमेवेति विज्ञाय संसृतौ नास्ति तत्सुखम् ।। ३२ ॥
इत्थं विचिन्त्येव तया विसे हे. प्रबुद्ध्या चंदनयाऽय वुःखम् । प्रशान्तभावेन, ततश्च पश्चाच्छुमोदयात्सा सुखभाग्बभूव ॥३३॥
उपसर्गसहनम् निःसंगः समोरो यथाऽवाधगत्या सर्वत्र भ्राम्पति, न चकत्र कस्मिश्चिदपि स्थले स भवति निरुद्धस्तथैवासंगो निम्रन्थस्तीर्थकरो महावीरोऽपीतस्ततोऽप्रतिवद्धावहारण विजहार। एकवाऽसौ
यथार्थदृष्टि से विचार किया जावे तो सुख और दुःख ये तो कल्पनाशिल्पी के द्वारा निर्मित हुए हैं क्योंकि जो जिसको रुचता है वह उसमें सुख मान लेता है और जो नहीं रुचता वह उसमें दुःख मान लेता है ।।३।।
पाकुलता जहां नहीं है वही सच्चा सुख है और जहां पाकुलता है वहां दुःख है । इस दृष्टि मे संसार में सुख है ही नहीं ।। ३२ ।।।
इस प्रकार का विचार करके ही चन्दमा ने बड़ी समझदारी के साथ दुःखों को सहन किया और फिर शुभोदय के प्रभाव से वह सुखी हो गई ॥ ३३॥
प्रभु का उपसर्गसहन कथन जिस प्रकार निःसंगपवन अबाधगति से सर्वत्र चलता है, वह किसी स्थान में रुककर नहीं ठहरता है उसी प्रकार असंग तीर्थकर भगवान् महावीर ने भी तपश्चरण करने के निमित्त एक स्थान से दूसरे स्थान पर अप्रतिबद्ध विहार किया।