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वर्धमान चम्मूः
यथाsस्ति दुःखमस्थायि सुखं सांसारिकं तथा । शं दत्त्वा गच्छतो दुःखात्तेऽस्ति हा ! का विभीषिका ॥ २७ ॥
संध्यारागनि सौख्यं यदन्ते तपसश्चयः । श्राविर्भवति दुःखान्तं
ज्ञानेनाभान्तकृ
प्रातःकालीन संध्यामं दुःखं संजायते ध्रुवम् । यदन्ते स्फारसौख्यस्य प्रकरशः शान्तिदायकः ॥ २६ ॥
किञ्च - के वाऽस्मदीयाश्च भवन्ति के वा
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जनास्तथा नेलि विवन्ति यस्मात् ।
तत्साधनं श्रेष्ठमिदं हि नान्यत्,
तस्मान्न
दुःखाद्विभितात्कदाचित् ॥ ३० ॥
सांसारिक सुख जब अस्थायी है तो दुःख भी अस्थायी है । ऐसा सोच-समझ कर दुःख से डरने की आवश्यकता नहीं है । जब दुःख नष्ट होगा तो वह सुख देकर ही नष्ट होगा ।। २७ ।।
ज्ञानियों का कहना है कि सांसारिक सुख संध्याकालीन लालिमा के समान है जिसके अन्त में अंधकार का बवंडर श्राता है, वह बवंडर ही तो दुःखों का स्थानापन्न है। यह ज्ञान-ध्यान की प्रभा का नाशक होता है और अन्धकार प्रकाश का विनाशक होना है ।। २८ ।।
दुःख प्रातः काल की लालिमा के जैसा है जिसके बाद स्फार प्रकाशवाला सुखसाम्राज्य भोगने को मिलता है ।। २६॥
अपने और पराये की पहिचान करानेवाला एक दुख ही है अतः इससे घबड़ाने की आवश्यकता नहीं है ।। ३० ।।