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वर्धमान चम्पूः
दुःखं तावद्भवति निकषो यत्र नुः स्यात् परीक्षा, शिक्षा दीक्षा गुणिगणकथा तत्कृते न क्षमाऽस्ति । जाते कष्टेऽविगलितधियः कर्मठा ये भवन्ति, राजन्ते से दहनविमलस्वर्णतुल्याः पृथिव्याम् ॥ २४ ॥
सौख्ये सावद्वसति बहुलो दुर्गणानां समूहः,
स्वेच्छाचारोऽकरणकरणं च प्रमादः शुभेषु । सौख्ये मग्नो भवति पुरुषश्चेन्द्रियाधीनवृत्तिः, बह्वारंभी बहुतरपरिसक्तचित्तः ॥ २५ ॥
सुखावसाने ध्रुवमेव दुःखं दुःखावसाने ध्रुवमेव सौख्यम् । इत्थं समtria न दुःखकाले भेतव्यमस्माल सुखानेि ॥ २६ ॥
दुःख एक कसौटी है जिस पर मानव की परीक्षा होती है । शिक्षा, दीक्षा एवं गुणिजन के गुणों की कथा से मानव की परीक्षा नहीं होती । आपत्तिकाल में जो कर्मठ बने रहते हैं और धैर्यविहीन नहीं होते हैं वे अग्नि से तपकर शुद्ध हुए स्वर्ण के समान इस धराधाम पर चमकते रहते हैं ।। २४ ।।
सांसारिक सुखसंपत्र अवस्था में अनेक दुर्गुणों का जमघट्ट रहता है | मनुष्य उस अवस्था में स्वेच्छाचारों निरंकुश बन जाता है। नहीं करने योग्य काम भी करने लग जाता है और अच्छे कार्यों के करने में बह आलसी हो जाता है । उसको प्रत्येक प्रवृत्ति इन्द्रियों के अनुसार होती है वह बह्वारंभपरिग्रहवाला हो जाता है ।। २५ ।।
यह तो निश्चित है कि जब सुख के दिन गुजर जाते हैं तो मनुष्य दुःख के दिनों को भोगता है और जब दुःख के दिन कट जाते हैं तो वह सुख के समय को भांगता है। सुख और दुःख इस तरह शाश्वत नहीं हैंपरिवर्तनशील हैं । इस प्रकार विचार कर सुखार्थी को दुःख के समय दुःख से भयभीत नहीं होना चाहिये ।। २६ ।।
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