________________
वर्धमान सम्पू:
145
भूयास्य श्रेष्ठिनो गृहं समाप । नवयौवनाध्यामिमां राकासुधादीधितिसमानवदनारधिन्दा सुन्दरागीं सुन्दराङ्गाकृत्या न्यकृत्तकामथामा समुद्रीक्ष्य श्रेष्ठिनः श्यामा वामा मनसि. पापाकान्त विचारधारा विचारयामास... कदाचियं मद्भर्तुरनुमता सती तदनुरागानुनद्धा न भूयादित्यारेकथा कलुषितहृदया सा तां वराकी चन्दना शृजलाभिनिगडितपाणिपादों संविधाय स्वभवनस्याधोगहाभ्यन्तरे चिक्षेप । प्रथाच्च तस्यै रूक्षं शुष्क पर्युषितं कशिपुमत्तम्। ____ इत्थं स्वीयदौर्माग्येन प्रपीडिता संव चन्दना सौभाग्योक्यालामहावीरस्य दर्शनं नानाविधपापमलापहारफं समुपलभ्य तस्मै चाहारकं प्रदाय दासताबंधन विनिर्मुक्ता जाता । इयमस्ति सतीति पश्चाविज्ञाय पश्चात्तापपरायणया श्रेष्ठिन्या "वेवि ! अज्ञानवशतो जायमानान् मदपराधान् भातुमनतम दया क्ष नरी संयोज्योक्त्वा साक्षमायाचनया मुहुर्मुहुः सत्कृता "विधिरहो बलवानिति" ययुक्त सत्यमेव ततवत्रसंजातम् ।
पूर्णिमा के चन्द्रमण्डल जैसे मुखवाली नवयौवनवती चन्दना को, जिसके समक्ष कामदेव की गृहिणी रति भी फीकी लगती थी, देखकर सेठ की धर्मपत्नी के मन में ऐसा विचार आया कि कहीं यह मेरे पतिदेव की प्रेमपात्र न बन जावे अत: उसने उसे अपने भवन के तलघर में शृङ्खला से हाथपैर बांधकर बन्द कर दिया और खाने-पीने के लिए वह उसे रूक्ष एव शुष्क बासी भोजन देने लगी।
इस प्रकार जो चन्दना अपने दुर्भाग्योदय से पहले पीडित थी वही चन्दना सौभाग्य के उदय से अब भगवान् महावीर के दर्शन पाकर और उन्हें आहार देकर दासता के बंधन से निर्मुक्त हो गई । जब सेठानी ने "यह सती है" ऐसा जाना तो वह अपने दुष्कृत्य पर बहुत अधिक शामिन्दा हुई और पछतायो । अन्त में उसने अपने दुर्व्यवहार की दोनों हाथ जोड़कर चन्दना से बार-बार क्षमा मांगी तथा उसका खूब सत्कार किया । "भाग्य बड़ा बलवान होता है" यह उक्ति यहां चरितार्थ होती है ।