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मानम्पू
धन्या जनास्ते विविधैस्तपोभिर्भीमसं स्वं परिशोधयन्ति । आदर्शरूपा जगतीह भूत्वा निविघ्नमायान्ति विमुक्तिसौधम् ॥ ३ ॥
कश्येऽपि यस्थां न बिमोहवृत्तिः,
संजायते साधुजनस्य तस्याम् ।
विवर्त्तमानस्य च तस्य वृत्तिः
कथं न सा पूज्यतमाऽमरैः स्यात् ॥ ४ ॥
उपद्रवा बाथ परीषहा च यत्र क्वचित्संचरलोऽपि साधोः । पायें समायान्ति, बिभेति नाथमालव्य साम्यं सहते प्रमोदात् ॥ ५ ॥
दुःखे सुखे वैरिणि बन्धुबग,
योगे वियोगे भवते धने वा । समेव येषां सततं प्रवृत्तिः,
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नमोऽस्तु तेभ्यो वृषनायकेभ्यः ॥ ६ ॥
वे मानव धन्य हैं जो अनेक प्रकार की तपस्याओं द्वारा मलिन श्रात्मा का शोधन करते हैं और प्रादर्श रूप होकर अन्त में बिना किसी बाधा के मुक्तिरूपी महल में जाकर विराजमान हो जाते हैं ।। ३ ।।
मुनिजनों का ममत्व शरीर पर नहीं अपनी मुनिवृत्ति पर होता है । इसी कारण उनकी वह वृत्ति देवताओं द्वारा भी पूज्य होती है ॥ ४ ॥
साधुजनों को बिहारकाल में अनेक प्रकार के उपसर्गों को और परीषों को सहना पड़ता है, परन्तु वे उनसे घबड़ा कर अपने कर्तव्य - पथ से विचलित नहीं होते, प्रत्युत समता भाव से उन्हें सहन करते हैं ।। ५ ।
उन धर्म के नायक मुनिजनों को मेरा बारम्बार नमस्कार हो जो सुख में, दुःख में, वंरी में, बन्धुवर्ग में, योग में, वियोग में, भवन में और वन में एक सो वृत्तिवाले होते हैं ।। ६ ।।