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षष्ठः स्तबकः
तपस्या
नमामि तं वीरमहं यदीयं पावस्थितं धुलिगत सुचिह्नम् । निरीक्ष्य शंकाकुलचित्तवृत्तिर्बभूव दैवज्ञ इह प्रबुद्धः ।।१।।
समासेन मुनित्तिस्तावत्प्रस्तूयतेसांसारिकं सर्वसुखं विहाय,
जिनेन्द्रमा प्रतिपच ये ते । भवं स्वकीयं सफलं विधातं,
दीक्षां समादाय चरन्ति केऽपि ॥२॥
छठा स्तबक
तपस्या
मैं ऐसे उस बोर प्रभु को नमस्कार करता हूं जिनके चरण-चिह्नों को मार्ग को धूलि में अंकित देखकर शंकितवृत्ति युक्त कोई राजज्योतिषी शंकाविहीन हो गया ॥१॥
संक्षेप से मुनिचर्या का वर्णन
जो मनुष्य सांसारिक समस्त सुख-साधनों का परित्याग करके जिनेन्द्र-प्रतिपादित मार्ग को अंगीकार कर अपने जन्म को सफल करते हैंमुनिवृत्तिधारण करते हैं ऐसे मानव इस संसार में विरले ही होते हैं ।। २ ।।