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वर्धमानचम्पूः
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माती - सुशीला - विक्षारोपणा--, ख्यानां सुतानां जनकेन दृश्धे । काव्ये गतः पंचम एष रम्यः, स्तयोऽस्तु विद्वज्जनश्चित्तहारी ॥४७॥
मातस्त्वया मम कृतोऽस्ति महोपकारः, तस्मै कृते प्रतिदिनं प्रणमामि तेऽध्रिम् । स्वर्गस्थिता स्वमधुनासि-तथापि पाणी, मोवाविमा कृतिमहं च समर्पयामि ॥ ४८ ।।
पंचमः स्तबक: समाप्तः
शान्ती, सुशीला, सविता और सरोज के पिता के द्वारा रचित इस काव्य में यह पंचम स्तबक समाप्त हुआ । यह विद्वज्जनों के चित्त को प्रमोददाता हो ।। ४७ ।।
हे मात: ! तुमने मेरा अनन्त उपकार किया है । अतः मैं प्रतिदिन अापके चरणों में प्रणाम करता हूं। श्राप इस समय स्वर्ग में विराजमान हैं। फिर भी मैं मापके हाथों में यह अपनी कृति समर्पण करता हूं ।। ४८ ।।
पंचम स्तबक समाप्त