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वर्धमानचम्पूः
इत्थं पूर्वभवस्मृतेः समभवज्ज्ञानप्रकर्षो हृदि, तस्माद्योऽजनि मुक्तिमार्गपथिको वैराग्यरागाच्युतः । हित्वा वैषयिकं सुखं निजमुपादेयं त्विति श्रद्दधत् मुक्तिस्त्रीपदलिप्सया विजयतां सिद्धार्थभूपात्मजः ॥ ४३ ॥
दंगम्बरों विना
दीक्षामात्मशुद्धिर्न जायते ।
छुमन्तरा न
कर्मनाशी भवेचित् ॥ ४४ ॥
मुक्तिलाभो बिना नाशात् कर्मरणां नैव संभवेत् । इत्थं विचिनय वीरेन शीशा देवम्बी ३५
"सरस्वतीपुत्र" इति प्रसिद्ध्या विपश्चितां योऽत्र बभूय महत्यः, श्रम्बादिदासान्तवोऽपगूढो विद्यागुरुमें
अयताद्दयालुः || ४६ ॥
इस प्रकार पूर्वभव की स्मृति से जिन्हें ज्ञान का प्रकर्ष हुआ और इसी कारण जो मुक्तिमार्ग के पथिक बने एवं जिन्होंने वैषयिक सुखों को हेय और आत्मोत्थ सुख को उपादेय माना ऐसे वे सिद्धार्थ नरेश के प्रियपुत्र सदा जयवन्त रहें ।। ४३ ।।
दिगम्बर दीक्षा के बिना पूर्णरूप से श्रात्मशुद्धि नहीं होती है । इसके बिना कर्मों का नाश नहीं होता है । कर्मों का नाश हुए बिना मुक्ति का लाभ नहीं होता है। ऐसा विचार करके ही उन सिद्धार्थ के इकलौते लाल वीर वर्धमान कुमार ने वैगम्बरी दीक्षा धारण की ।। ४४-४५ ॥
ये सरस्वती के पुत्र हैं इस रूप से जिन्हें बिद्वानों ने सम्मान दियाऐसे वे मेरे विद्यागुरु पूज्य अम्बादास शास्त्री सदा जयवंत रहें ।। ४६ ।।
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