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वर्धमानबम्पू
मोहाख्यशत्रु च विजेतुमेते भवन्ति वैगम्बरवृत्तिभाजः । विहाय संग परिवर्त्य भोग ज्ञात्वा च देहं खलु रोगगेहम् ॥ ७॥
अत्यन्तमुष्णा प्रवहन्ति वाताः,
सूर्यांशवो यत्र तपन्ति देहम् । क्षितिश्च धमध्वजबदध्यगम्या,
तपस्विनः पावविहारिणोऽमी ।। ८ ।।
पुष्पावलोभी रचितासु पूर्व शय्यासु सुप्तं भवने सुखेन । यस्तेऽधुना धूलिकणान्वितायां स्वपन्ति महा मुनिवृत्तिरेषा
गणे सादला
अखर्वगर्वावधना त एव । संवीक्ष्य संवीक्ष्य महीं चलन्ति, ।
जीवानुकं पाशयतो मुनित्वे ।। १० ॥
मोहरूपी शत्र पर विजय पाने के लिए ही दिमम्बर वत्ति अंगीकार की जाती है, इस दिगम्बर वृत्ति में वर्तमान मानव को २४ प्रकार के परिग्रह का, पंचेन्द्रियों के विपयों में रागद्वेष करने का एवं रोगों के घररूप समझ कर देह पर अनुराग रखने का परित्याग हो जाता है ।। ७ ।।
ये मुनिजन ज्येष्ठ के महिने में जबकि स्र्य अपनी प्रखर किरणों से पृथ्वी को अग्नि के समान अत्यन्त उष्ण कर देता है, शरीर गर्म-गर्म लयों से तपने लगता है, और जब जमीन पर नंगे पांव चलना मुश्किल हो जाता है. पैदल चलते हैं ।। ८ ।।
जो पहिले अपने भवन में पुष्पों की सेज पर सुख से सोते थे वे ही मुनि अवस्था में धूलि से भरी हुई भूमि पर सो जाते हैं ।। ६ ।।
पहिले जो बड़े ठाटबाट से हाथी पर बैठकर मूछों पर ताव देकर चला करते थे, वे ही मुनि अवस्था में जीवों की रक्षा करने के अभिप्राय से भूमि को देख-देखकर चलते हैं 11 १० ।।