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बर्धमान चम्पूः
सत्यमेतत्
धन्या सा प्रकृतिर्यदीयकृपया व्यालोऽपि मालायते क्ष्वेडो वाऽय सुदृष्टिरागवशतः पीयूषकोशायते । दुर्ग: स्वर्गनिभोऽनलो - जलसमो खड्गोऽपि हारायते, दुर्दान्तोऽपि करी हरिश्च हरिको भीमोऽपि शिष्यायते ।। ५ ।।
महाप्रभावः प्रकृतेर्यदा सा, संजायते कोपवती तथा स्युः । कार्याप्यनिष्टानि वसुन्धरायां घरापि विस्फोटवती चित्स्यात् ॥ ६ ॥ विकारहीनप्रकृतेः प्रभावात् समन्ततो वृद्धिमुपैति भत्रम् । नूनं पृथिव्यां नितरामनन्तं भवन्त्यरण्येऽपि च मंगलानि ॥ ७ ॥
यह सत्य है कि
वह प्रकृति धन्य है जिसकी परम कृपा से विषधर सर्प भी पुष्पमाला के जैसा हो जाता है, विष भी अमृत के कोश जैसा बन जाता है, भयंकर दुर्गम स्थान भी स्वर्ग के तुल्य सुखप्रद हो जाता है, अग्नि पानी के जैसी, तलवार कण्ठ के हार जैसी एवं दुर्दान्त गजराज भी विनीत घोड़े के समान हो जाता है । ज्यादा क्या कहा जावे- भयप्रदविकराल केशरी भी जिसकी अनुकूलता के बल पर शिष्य के जैसा श्राचरण करने लग जाता है ॥ ५ ॥
प्रकृति का प्रभाव बहुत विशिष्ट होता है । जब वह कोपवती हो जाती है तो इस पृथ्वी मण्डल के ऊपर अनेक अनिष्ट कार्य होने लगते हैं । कहीं-कहीं यह धरा भी स्वयं फट जाती है ॥ ६ ॥
जब प्रकृति स्वस्थ होती है, तब इसी वसुन्धरा पर अनेक मांगलिक कार्यों की सब ओर सृष्टि होने लगती है और वृद्धि भी होने लगती है । यहां तक कि जंगल में भी मंगल होने लग जाते हैं || ७ ||