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वर्षमागचम्यूः
सर्व सहेयम् प्रकृतिः स्वभावात्,
यदा विरुद्धा विषमाऽयवा स्यात् । सदा पृथीव्यां प्रसरत्यकालो,
वृष्टेरभावो बहुवृष्टि सृष्टिः ॥८॥ एवमेध यता स्वार्यान्धीकृतविवेकवक्षषो मानवाः स्वाभिप्राय कुत्सितं साधयितुमीहन्ते तदा ते निःशङ्कीभूय संस्तो विविधं दुराचारमत्याचारं च सृजन्ति । तत्सिद्धये विविधाभिः कुयुक्तिभिस्तयोः पोषणं संवर्धनं च विवति । एवं दुराचारादीनां प्रसरणे प्रचारे च सति कृपापात्रता अपि दीनहीनदशापन्नाः प्राणिनस्तदा न पियपेषण्या पिष्टा भवन्ति । ये च सन्ति रक्षकास्तेऽपि तस्मिन् काले मक्षिका इव भक्षकाः संजायते । बयालयोऽपि हा ! हन्त ! निर्दयान्तःकरणमासो गहिताबरण
अतिवृष्टि का होना, वृष्टि का नहीं होना तथा अकाल का पड़ना ये सब प्रकृति की विकृति के फल हैं । प्रकृति यद्यपि स्वभावत: सर्वसहा है; परन्तु जब यह विरुद्ध या विषम अवस्थावाली हो जाती है तब ये सब विकार पृथ्वी पर देखने में प्राते हैं ।। ८ ।।
जब मानव की स्वार्थवश विवेकरूपी अांखें अंधी हो जाती हैं, तब वे अपने कुत्सित अभिप्राय को हर तरह से सिद्ध करने की चेष्टा करने की ओर अग्रसर हो जाते हैं, उन्हें न किसी का भय होता है और न किसी प्रकार की शंका । संसार में वे अनेक प्रकार के दुराचार अत्याचार के सर्जक होते हैं; उनका वे प्रचार और प्रसार करते रहते हैं। इनके प्रचार और प्रसार की पुष्टि में वे अनेक विध कुयुक्तियों का सहारा लेते हैं । ऐसेऐसे कदाचारों का जब प्रचार और प्रसार बढ़ जाता है तब दया के पात्रभूत भी दीनहीन दशापन्न प्राणी उस समय निर्दयता की चक्की में पिसते रहते हैं, जो इनके रक्षक होते हैं, वे भी उस काल में मक्खियों की तरह भक्षक बन जाते हैं । दयालु जन भी, बड़े दुःख की बात है कि, दयाहीन होकर मलिन आचार-विचार वाले बनकर उन पर कहर बरसाने लगते