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वर्धमान चम्पूः
सिंहासने विविधरत्नराशिशिखाभिरामे त्वां सुस्थितं ननु संवीक्ष्य सदस्यमाला जानातीवमेव किमिदं विराजमानं तुङ्गोदयाद्विशिरसोय सहस्त्ररश्मे विम्बमिति ।
संसार सिन्धुतरणे तरणीयमानं योऽत्रिद्वयं च अस्य प्रभोर्भवति मुक्तिपतिः स इत्थं से दुन्दुभि
शरणं समुपैति भव्यः । ध्वनति ते यशसः प्रवादी
॥ ३१ ॥
त्वद्ध्यानतः परमपावन ! नाथ ! जीवाः, त्वत्संनिभा यदि भवन्ति किमत्र चित्रम् । द्रष्टा रसायनवशाद्धि समाप्नुवन्त, स्वापीत्यनचिणादिय
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धातुभेद ३२ ॥
हे नाथ ! विविधरत्नों की शिखा से मनोहर सिंहासन पर विराजमान आपको देखकर यह सदस्यमण्डली यही जानती है कि मानो यह उदयाचल पर्वत की चोटी पर विराजमान सूर्य का बिम्ब हो है ।
हे जिनेन्द्र ! आपके यश का गुणगान करनेवाली आकाश में बजती हुई दुन्दुभी यही प्रकट करती है— जगत् को सन्देश देती है - कि हे भव्य जीवो ! जो तुम संसार - समुद्र से पार होकर मुक्तिपति बनना चाहते हो तो संसार - समुद्र से पार लगाने के लिए नौका के समान इस प्रभु के चरणों की शरण ग्रहण करो ।। ३१ ।।
हे परमपावन नाथ ! यदि आपके ध्यान के प्रभाव से ध्यानकर्ता भाप जैसा बन जाता है तो इसमें कोई अचरज जैसी बात नहीं है कारण कि—- रसायन के योग से धातुभेद - लोहा-भी तो बहुत शीघ्रता से स्वर्ण बनता हुआ देखा जाता है ।। ३२ ।।