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वर्धम.मचम्पूः
कस्तूरिकामोद इव प्रसिद्धा त्वयि स्वमाद्विभुता, यथाब्धौ । अस्ति प्रकृत्या गरिमा, न देव ! स्तोकापवादेन जलाशयस्य ॥ ३३ ॥
सत्यं जिनेन्द्र ! जगतीह मुमुक्षवस्ते,
तावस्वदीयचरणं च समाश्रयन्त यावत्प्रभो ! न हि भवन्ति च मुक्तिकान्ता-,
कान्ताश्च ते नीतिरपश्चिमैषा ।। ३४ ॥
क्षुधादिदोषैः परिवजितोऽसि हितोपदेष्टाऽसि च विश्ववेत्ता । छास्थ बोधाविषयोऽस्यतस्त्वां वन्दे विभु कालकलामतीतम् ॥ ३५ ॥
हे नाथ ! आप में जो प्रभुता है वह कस्तूरी में उसकी गंध के समान स्वाभाविक है । किसी वस्तु -सुगन्धित द्रव्य-के अपवाद से नहीं है प्रत: समुद्र में गरिमा की तरह आप में प्रभुता प्रकृति सिद्ध ही है ।। ३३ ॥
हे जिनेन्द्र ! यह तो सत्य है कि जो मुमुक्षुजन हैं वे तभी तक आपके चरणों का सहारा लेते हैं जब तक उन्हें मुक्ति का लाभ नहीं होता । नीति भी ऐसी ही है कि कार्य सिद्ध हो जाने पर कारण की फिर क्या चाहना होती है ।। ३४ ।।
हे नाथ ! प्राप काल की कला से रहित हैं, क्षुधादि १८ दोषों से विहीन हैं, हितोपदेष्टा है एवं विश्व के ज्ञाता हैं, छमस्थजनों के ज्ञान के
आप अविषय है अर्थात् छपस्थ जन आपके स्वरूप को साक्षात् जान नहीं सकते अतः आपको मेरा बारम्बार नमस्कार है ।। ३५ ।।