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वर्धमानचम्पू: हे ज्ञातृवंशवनचंदन ! ते प्रणीतं धर्मामृतं भुवि निपीय भवन्ति भव्याः । । तप्ता वदामि नितरां धुतकल्मषानां कि वा विपहिषधरी सविध समेति ।
॥२८॥ मुक्तिश्रिया परिवृतोऽसि विभो ! त्वयापि,
सा वा वना प्रथितमेसवभूनच वनम् । तां त्वां वरीतुमथ संचलितं निरीक्ष्य,
___ संपात्यते ह्म परि देवगणः प्रमोदात् ।। २६ ॥ उत्फुल्लराजिरथवा हृदयेऽमराणां,
या धर्मवल्लिरतिदीर्घतराजनिष्ठ । तस्याश्च भक्तिपवनेन च कम्पिताया-, द्रागाऽपतत्कुसुमरा शिरमेय एषः ।। ३०॥
-युग्मम्
हे ज्ञातृवंशरूपी वन के चन्दन ! आपके द्वारा प्रणीत धर्मरूप अमृत का पान कर भव्यजन तृप्त हो जाते हैं-अमर बन जाते हैं, एवं उनके कल्मष धुल जाते हैं । मैं सच कहता हूं कि विपत्तिरूपी नागिन ऐसे जीवों के पास तक फटक नहीं पाती है ।। २८ ।।
हे नाथ ! जब यह समाचार देवों को ज्ञात हो गया कि मुक्तिरूपी लक्ष्मी ने पापको पसन्द कर लिया है और आपने भी उसे पसन्द कर लिया है तो जब आप उसे संवरण करने के लिए प्रस्थित हुए तों उसे देखकर हषित देवों ने आपके ऊपर पूष्पों की वृष्टि की है अथवा-देवों के हृदय में जो धर्मरूपी बेल बढ़ी-फूली फली वह अब भक्तिरूपी पवन से हिली है तो उससे यह अमेय पुष्पराशि बहुत ही शीघ्र नीचे गिरी है ।। २६-३० ।।