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वर्धमानचम्यू:
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भरतक्षेत्रस्य वर्णनम् -
बदान्यताधरकृतकल्पवृक्षजनः सदाचारपवित्रताः ।
धन्यः सुमान्यः सुरतुल्यरूपः श्रिया समालिङ्गितचारवेषः ॥ २६ ॥ निःसेवितः स्वर्गनिमः पवित्रस्तीयंकरोत्पत्तिविशिष्टशिष्टः । बीपेऽस्त्यमुष्मिन् खलु भारताख्यो देशो विवस्वानिव चान्तरिक्षे ॥३०॥ तद्दक्षिणस्यां दिशि वर्तमानो,
देशोऽयमणिगणे । यतो हि काळंति सुरा अपीम,
नजन्मने स्वात्महिताभिलाषात् ॥ ३१ ॥ क्षेत्र समृद्ध्या परिपूर्णमेतत्,
समस्ति पुण्यात्मधयर्वरिष्ठम् । मन्दाकिनीसिन्धुतरङ्गिन्यनि-,
विभक्तषङ्खडसुमण्डितं तत् ॥ ३२ ॥
इस जम्बुद्वीप में एक भरतक्षेत्र नाम का देश है । यहां के निवासी जन सदाचार से पवित्र और दान धर्म की प्रवृत्ति से सदा हरे भरे बने रहते हैं। इनकी वदान्यता दानशीलता को देखकर कल्पवृक्ष भी नीचे भक गये । देवताओं के जैसा इनका रूप सौन्दर्य होता है। ऐसे महामान्य धन्य-जनों द्वारा यह देश सुसेवित है । इस देश की विशिष्टता का एक सबसे बड़ा कारण यह है कि इसे तीर्थकर अपनी उत्पत्ति का स्थान बनाते हैं। जैसे आकाश में सूर्य चमकता है वैसे ही इस द्वीप में यह देश चमकता है। ॥२६-३०।।
जम्बद्वीप की दक्षिणदिशा में यह भारत नाम का देश है । समस्त प्राणी इसकी पूजा करते हैं सार्थात् यहां जन्म लेकर वे अपने आपको भाग्यशाली मानते हैं । इसीलिए देवता भी प्रात्मकल्याण करने की कामना से यहां मनुष्य जन्म धारण करने के लिए लालायित रहते हैं ।। ३१ ।।
पुण्यात्मात्रों द्वारा सर्वतोभद्र बना हश्रा यह क्षेत्र समस्त प्रकार की ऋद्धि से परिपूर्ण रहता है । गंगा और सिन्धु तथा विजयाई पर्वत, इनके द्वारा विभक्त होकर इसके ६ खण्ड हो गये हैं ।। ३२ ।।