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वर्ष मानवम्पू:
स्वपारपर्भश्सकृच्च साधो ! कृतं कृतार्थ गहमस्मदीयम् । पुरातनैस्तैस्त्वनुशजस्त राधेन्द्र ! निर्वाणपुरों प्रयातः ।। २५ ॥
त्वयेवमप्यार्य ! मुमुक्षुणा नौ कुलक्कमेरणानुगतं सुसख्यम् । पाल्यं, समादाय तबीयमित्थं वृत्तं दिवं गच्छति मेदूतः ॥ २६ ॥
षडायताः सन्ति नगाश्च, सप्त,
क्षेत्राणि, नद्योऽत्र चतुर्वशाढ्याः । वनर्भयाढ्योऽपि सदा स्थिरो यो,
लक्ष्म्यालयो योजनलक्षमानः ॥ २७ ॥
नयम्बुतलाञ्चितविस्तृतान्तः सुमेरुशृङ्गोरुदशोऽयमे वोः । प्रमाभरोऽसौ गगनाञ्जनश्रीः स्वोतितु वोपत्ति वीप्तरूपः ॥ २६ ॥
"हे प्रथमस्वर्गाधिपते शक्र ! जब-जब आपके वंशज मोक्षपुरी में गये हैं, तब-तब उन्होंने हमारे घर को अपने चरणकमलों से पवित्र किया है अर्थात् वे यहां कुछ दिन ठहरकर ही बाद में मोक्षपुरी में गये हैं। प्रतः जब आप भी मोक्षपुरी जाने लगें तो कुल परम्परा से चले आये हुए इस मंत्रीभाव को निभावें ।" इस प्रकार के इस जम्बूद्वीप के दिये गये सन्देश को लेकर ही मानो सुमेरुपर्वतरूप दूत स्वर्ग की ओर जा रहा है ।।२५-२६।।
इस जम्बुद्वीप में पूर्व से पश्चिम तक लम्बे ६ पर्वत हैं, ७ क्षेत्र हैं, गंगा आदि १४ नदियां हैं, सौमनस प्रादि वनों एवं अपनी विशिष्टकान्ति से यह सदा सुशोभित रहता है, यह स्थिर है, लक्ष्मी का भण्डार और एक लाख योजन के विस्तारवाला है ।। २७ ।।
यह जम्बुद्वीप स्वर्गलोक को प्रकाशित करने के लिए चमकीले रूप वाले एक दीपक के जैसा है । नदियों का जल ही इसमें तेल है। सुमेरुपर्वत का शिखर इसकी विस्तृत बत्ती है । सूर्य और चन्द्रमा की प्रभा इसका विशिष्ट प्रकाश है और आकाश ही इसका निर्गत अंजन है ।। २८ ।।