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वर्धमानसम्प:
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जिनाभिषेकाय सुराङ्गनाभिः,
सुरंश्च शच्येह समागतस्य । शतकतो मरपवन दत्तो ,
दीपश्रिया बोष इवाश्रयः किम् ॥२२॥
प्रवादिसंकल्पितलोकरूपः,
सम्पनयास्तति, विलोकनाय । सूक्ष्मेक्षिकातो युगलेन्बु सूर्य-,
व्याजाद् दधातीय महोपनेत्रे ॥२३॥
धतेऽन्तरं मे वियतश्च मध्ये,
कियद्भवेद्वेति बुभुत्सया यः। सुचिह्नितं सौमनसादिमिस्तै,
मन्मिषेणेव च मानसूत्रम् ॥२४॥
जिनेन्द्र प्रभु के जन्म कल्याणक का अभिषेक करने के लिए प्रथम स्वर्ग से अपनी इन्द्राणी, देव और देवाडनाओं के साथ आने वाले इन्द्र के लिए उस द्वीपश्री ने उतरने के निमित्त सुमेरुपर्वत के ब्याज से मानो यह हाथ का सहारा ही दे रखा हो ।। २२ ।।
में तो ऐसा मानता है कि 'अन्य सिद्धान्तकारों ने जो लोक का स्वरूप माना है वह सत्य है या नहीं' इस बात को सूक्ष्मदृष्टि से विचारने के लिए ही-जांच करने के लिए ही-इस द्वीप ने चन्द्र और सूर्य के ज्याज से दो बहुत बड़े उपनेत्र (चश्मा) लगा रखे हैं ।। २३ ।।
'मुझ में और प्रकाश में कितनी दूरी का प्रन्तर है' यह जानने के लिए ही मानो इस द्वीप ने सुमेरु पर्वत के बहाने से ही सौमनसादि बनों से चिह्नित यह मानसूत्र धारण कर रखा है ।। २४ ॥